Monday, July 28, 2008
मन का अन्धकार
मन के एक कोने में
बसी थी वो,
दिखने में, माथे की बिंदी
जितनी ही थी वो.
रंग की ऐसी काली थी वो,
जैसे रोशनी, उसके मुख की निवाली हो.
मेरे मन के इर्द-गिर्द घुमती थी वो,
जैसे हर किसी से नाता बनाती थी वो.
धीरे-धीरे आकार में बढ़ने
लगी थी वो,
इतनी कि, अब मन में कोई भी
रहता नहीं, रहती तो सिर्फ वो.
न सुख के पल,
न दुःख के पल,
न मीठी यादें,
न कड़वी यादें,
न दो-चार आँसू,
न कोई मुस्कुराहटें,
न अपनों की तस्वीर,
और न ही सुनहरी कोई
आशा की लकीर.
कल तक मुझ-में ही समायी हुई थी ये,
आज ये मेरा मन भी कम पड़ रहा है.
देखो ना.. ये मेरे मन का अन्धकार
शन्नै:-शन्नै: अब बाहर भी फ़ैल रहा है.....
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