A tesimonial to my friend Amrit [note: * his fav song]
इक लड़का "आते-जाते"* जाने
क्या-क्या गुनगुनाते रहता है;
शायद "तुम बिन"* की कहानियाँ
खुद में ही दोहराते जाता है.
न ज़मीन, न ही खुले आकाश पर
उसका डेरा जमता रहता है;
वो तो चलता है तो बस
पानियों में जैसे बहता रहता है.
खेलने की आदत गई नहीं उसकी,
मछलियों का दिल अब भी पकड़ता रहता है;
flirt में माहिर, फिर भी वो शातिर
gentleman बना फिरता रहता है.
बारिश में भींग कर जब फ़ोन करता है,
"oh shit!"-- जैसे उसका ringtone बजता है;
sms का full package लेके घूमते रहता है,
कब कौन नया नंबर मिल जाये, पूछूँ तो
"keep shut" उसका जैसे hellotune बन जाता है.
experience तो 29 yrs. का ही बताता है,
फिर भी बुढ्ढे होने से अब भी कतराता है;
दिखने में तो dracula सा लगता है,
बोलूं तो black belt की धौंस जमाता है.
कुछ शौक अच्छे है उसके, कभी कभार
photography भी कर लेता है.
तस्वीरें मगर वही अच्छी उसकी,
जिसमें वो कहीं नहीं होता है.
गाने को बोलूं तो पहली बार
उसको खुद पे शरम आता है;
सुन लेना जरूर उसकी आवाज़ को,
वो हर दम ही दिल से गाता है.
बातें करेगा मन भर की वो तुमसे,
तुम करो तो -"ज्यादा हो रहा है" ऐसा कहता है;
सबकी हर बातें याद रखता है वो, खुद
को ही कहीं भुल कर आ जाता है.
वो हँसता-बोलता है , ऐसा कर के
कुछ का तो दिल जरूर चुराता है;
जो न मिले तो, "GTH"
type कर ek msg. छोड़ जाता है.
खट्टी-मिठ्ठी अहसासों से भरा हुआ है वो
फिर क्यूँ वो "amrit" कहलाता है....
Friday, July 24, 2009
Thursday, July 9, 2009
क्षणिक मुस्कुराहट..........
मालूम नहीं कैसे उनके चेहरे पर
वो प्यारी-सी लकीर यूँ ही बरबस
बिना बात के आ जाती है.
शायद कुछ याद बन के आ जाते है,
कुछ अकारण,
और कुछ तो मुखौटे की तरह
किसी कारण-विशेष ही आते है.
मैं भी मुस्कुरा लेती हूँ कई बार,
अकसर मगर यादों की लकीरें
न चाहते हुए भी
एक खरोंच भेंट-स्वरुप दे जाती है;
मुखौटे के भीतर भी दम घुटने को होता है,
जीने की चाहत जैसे कम होने लगती है
- साँसों के उखड़ने के तरह;
और बिना कारण
तो कुछ भी नहीं मिलता,
फिर यह क्षणिक मुस्कुराहट भी कैसे?
सोचती हूँ क्या है वो जो,
फिर भी हँसने को मजबूर करती है;
शायद मेरी तरह और भी है,
इक-दूसरे को इक ही मुखौटा पहने देखना
व इक जैसा ही दागनुमा चेहरा,
अनगिनत यादों की निशानी -
शायद यही संजोग मुझको
मुस्कुराने पर विवश कर देती है.
वो प्यारी-सी लकीर यूँ ही बरबस
बिना बात के आ जाती है.
शायद कुछ याद बन के आ जाते है,
कुछ अकारण,
और कुछ तो मुखौटे की तरह
किसी कारण-विशेष ही आते है.
मैं भी मुस्कुरा लेती हूँ कई बार,
अकसर मगर यादों की लकीरें
न चाहते हुए भी
एक खरोंच भेंट-स्वरुप दे जाती है;
मुखौटे के भीतर भी दम घुटने को होता है,
जीने की चाहत जैसे कम होने लगती है
- साँसों के उखड़ने के तरह;
और बिना कारण
तो कुछ भी नहीं मिलता,
फिर यह क्षणिक मुस्कुराहट भी कैसे?
सोचती हूँ क्या है वो जो,
फिर भी हँसने को मजबूर करती है;
शायद मेरी तरह और भी है,
इक-दूसरे को इक ही मुखौटा पहने देखना
व इक जैसा ही दागनुमा चेहरा,
अनगिनत यादों की निशानी -
शायद यही संजोग मुझको
मुस्कुराने पर विवश कर देती है.
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