कभी-कभी मैं अपने आप से ही उकता जाती हूँ. क्या करना है? यही नहीं पता है और जो कर रही हूँ तो क्यूँ कर रही हूँ? वो भी नहीं पता. जो नहीं करती, तो क्यूँ नहीं करती? वो भी नहीं पता. कभी लिखने का बहुत मन हो जाता है तो लिख के सुकून-सा लगता है, कुछ बोझ कम हो गया हो जैसे. तो कभी क्यूँ लिख कर बोझ को कम करूँ? यह सोच-सोच कर परेशान हो जाती हूँ. ये लिखने का तरीका भी अपनाते-अपनाते अब बोरियत-सी लगती है. कभी दौड़ने चले जाती हूँ, तो लगता है कि लोगो को देख कर खुशी मिल सकती है. कभी जब वापस कमरे में बैठती हूँ, तो लगने लगता है कि ये खुशी कभी टिकनेवाली नहीं है. तो क्यूँ मैं इसके पीछे-पीछे भागती रहती हूँ? हाँ, एक चीज़ सदैव साथ रहती है मेरी तन्हाई. मगर साथ देती है, तो पीछा छुड़ाने का मन करता है. शायद मैं अजीब ही हूँ. दुनिया में जोड़-घटाव तो लोग जन्मने के बाद से ही सीखने लगते है, मुझे क्या पड़ी थी कि ये सोचने की कि जोड़ क्यूँ और घटाव क्यूँ? ‘कुछ भी नहीं’ क्यूँ नहीं और ‘कुछ नहीं’ तो क्यूँ ‘कुछ नहीं’? सवाल-पे-सवाल और उसके बीच मैं. जो नहीं मिल पाता उससे दूर तो हो जाऊँगी धीरे-धीरे. मगर फिर किस पे जाके टिकूँ कि मुझे राहत मिले? कभी तो कोई क्षण हो, जो मेरे अनुसार बनी हो, जन्मी हो. मगर नहीं यहाँ पर इतनी चिल्लम-चिल्ली में मेरी बात कौन सुनेगा? और वो उपरवाला, उसे क्या कहूँ? कभी लगता है, मेरे साथ ऐसा हो रहा है तो क्या उसकी वजह वो तो नहीं? जब मैंने उसकी मूरत वाले सारे मूर्तियों को तोड़ कर अपना गुस्सा ठंडा किया था. शायद इसलिए वह मुझसे गुस्सा भी गया है, इसलिए मेरे रास्ते और टेढ़े-से-टेढा करते जा रहा है. मगर उसका क्या जो उस पण्डे ने पैसे लेकर तेरे नाम की पुड़िया दी थी. एक लाल चुनरी अब भी मेरे कमरे में रहती है, यह जताने के लिए कि मैंने तुम पे कितना विश्वास किया था. सरे झोलाछाप पूजा पर आखिर विश्वास ही तो किया था न. पूजा गलत हो सकती है, दिखावा हो सकता है, मगर क्या मेरा विश्वास गलत था? तुम्हारी चुनरी अब भी चमकती है, वैसे ही जैसी पहले थी. शायद तुम्हारे आस पास कुछ भी नहीं बदला हो, तो मेरी दुनिया क्यूँ बदली? अगर तुम मुझसे जुड़े हुए हो या मैं तुमसे, तो तुम्हे मेरे जीवन के बदलाव से फर्क महसूस क्यूँ नहीं होता? जैसे मुझे लगता है कि तुम बादलों के ऊपर अपने सिहांसन में बैठे मुझे देख रहे होगे तो तुम्हें क्यूँ नहीं दीखता कि मैं रो रही हूँ? मैं रो रही हूँ कि किस-किस पर विश्वास करती जाऊँ और हर उस बनते विश्वास को फिर तोड़ती भी जाऊँ. तुम को टूटने का दर्द पता है न? उस दिन जब तोड़ा था तुम्हें, तो तुम्हे शायद कहीं-से भी तो थोडा-सा दर्द हुआ होगा न. फिर भी नहीं समझते कि मुझे कितना दर्द होता है? कहते है जो होना होता है वो पहले से लिखा हुआ होता है, तो ये बताओ जब तुमने सब कुछ मेरे लिए निर्धारित करके रखा है, तो जो मैं कर रही हूँ वो मैं नहीं तुम करवा रहे होगे न. तो दोषी कौन? और सजा किसको मिले? मैंने तो नहीं लिखा था अपना किस्मत, तो मैं क्यूँ रोऊँ? तुमको लिखना आसान लगता होगा, इसलिए कुछ भी लिख देते होगे किसी के हिस्से में. कभी अपनी किस्मत में भी कुछ भी लिख लेते, तो मुझे भी तसल्ली होती.