यूँ तो मैं घर पर फोन
कभी-कभार ही किया करती हूँ, शायद सप्ताह में एक बार या फिर १५ दिन में एक बार। लोग
अजीब ही समझते होगे मुझे कि मैं घर पर फोन कम करती हूँ। शायद मुझे फोन से चिढ़ है
या फोन पर माँ-पापा से बात करना मुझे बिलकुल नहीं आता। हाँ जब भी छुट्टियों में घर जाती हूँ तो
घंटों-घंटों बातें करती रहती हूँ। अक्सर पापा के सिरहाने में रखे दो तकियों में से
एक को चुराकर, या नहीं तो उनकी पीठ
को ही तकिया बनाकर और मम्मी के गोद में पैर रख कर धीरे-से इशारा करना कि थोड़ा और
माँ, ‘वहाँ जा के किसको बोलूँगी?’ कुछ ऐसे एक्सप्रेशन बनाकर, कभी बालों को सहला देने की मिन्नतें कर के कि बस तब तक ही करना, जब तक कि मैं सो न जाऊँ। तो इस तरह के हर प्रकार की मनमानी
करते हुये मैं घंटों बातें कर सकती हूँ। शायद मुझे ऐसे ही बातें करना आता है। मुझे
सुबह में उनींदी में भी बातें करना अच्छा लगता है, जब पापा टूथपेस्ट ढूँढ़ने आते हैं या अलमारी की चाबी या माँ
से देरी क्यूँ हो रहा हैं नाश्ते में? - ये पूछवाने के लिए भी, जब मेरे बिस्तर से एक-एक करके तकिया, चादर, कम्बल सब गायब होने लगता है
तब। कभी-कभी तो ठीक मेरे सिर के पास वाली खिड़की खोल के चले जाना, जिससे ठंडी हवा लगकर मुझे रोज
सुबह छींक आने लगती है, पापा के पास हर चाल होती है मुझे जगाने के लिए और मेरे पास ‘थोड़ी देर और पापा’ के हर बहाने।
पापा को उनका स्कूटर
निकलवाने के लिए दरवाजा खोल के खड़े रहना, तो कभी उनकी ‘नॉन-स्टॉप पें-पें’ से तंग आकर कहना कि ‘सुनाई दे दिया हैं’ , फिर भी उनके पें-पें का चलते रहना, जब तक कि मैं दरवाजा खोल के
किवाड़ को पकड़े न रहूँ, स्कूटर को अंदर आने देने के लिए। हर बार मम्मी और मेरा प्रवचन कि आप इतना
हॉर्न मत बजाओ, हमको सुनाई दे जाता
है एक बार में। लेकिन सूरज तो पूरब से ही उगता है, वैसे ही मेरे पापा।
एक बार की बात है, मैं क्लास ७ में थी उस समय।
उस दिन मैं टिफ़िन नहीं ले के आई थी, सो मम्मी ने पापा को ऑफिस जाते वक़्त देते जाने को कहा था।
पापा स्कूल पहुँच कर सब भूल गए कि मैं किस क्लास में हूँ, सेक्शन की तो बात ही भूल
जाइए। एक टीचर से पूछने लगे कि मेरी बेटी को टिफ़िन पहुँचाना है। उस टीचर ने क्लास
और सेक्शन पूछा तो पापा ६-७ में कन्फ्युज हो गए, सेक्शन तो बता ही नहीं पाए। खैर टीचर ने फिर नाम पूछा तो
पापा ने कहा ‘बुटरु’ (यह मुझे घर में बुलाया
जानेवाला नाम है), टीचर तो पहले समझी ही
नहीं कि नाम क्या है, फिर अजीब-से मुद्रा में देखते हुये दुबारा पुछी कि स्कूल का नाम क्या है? अब पापा को ध्यान आया तो वो
गलती सुधारते हुये बोले ‘ जी कविता.... नहीं कल्पना..... नहीं...........’ इसके बाद उनके चेहरे में एक
बड़ा-सा ब्लैंक आ गया था। दरअसल वो सबसे पहले मेरी बड़ी दीदी का नाम लिए ‘कविता’ फिर मेरी छोटी दीदी ‘कल्पना’ का और मेरे नाम पर आते-आते
वो ब्लैंक हो गए। तभी मेरी सहेली अलका वहाँ से गुजर रही थी, और शायद वो उनको टीचर से
बातें करते हुये देख ली थी। उसने पापा को कहा कि ‘अंकल! चलिये मैं आपको बन्दना के क्लास में ले जाती हूँ’। फिर तब तक किसी ने मुझे भी बता
दिया था कि तुम्हारे पापा तुमको ढूँढ़ रहे हैं, तो मैं उनको सीढ़ियों में ही मिल गयी। बाद में वो टीचर
(रूपा दीदी) जो मुझे अच्छी तरह से जानती थी, क्लास मे हँसते हुये कहने लगी कि तुम्हारे पापा को
तुम्हारा नाम ही याद नहीं था। उस दिन घर जाके हम सबसे पहले अपना क्लास और सेक्शन
रटवाये और नाम को लेकर खूब बहस किए कि ‘बुटरु’ कह के किसी से पूछिएगा नहीं अबसे।
कल-परसों ‘इंग्लिश-हिंगलिश’ देख के आई तो मुझे अपने दिन
याद आने लगे, जब मैं मम्मी के बजाय
पापा को रिज़ल्ट वाले दिन स्कूल आने के लिए कहती थी, इसलिए नहीं कि मम्मी की इंग्लिश अच्छी नहीं थी (क्यूंकि
मैं पाँचवीं तक मम्मी के चूल्हे के पास ही पढ़ाई पूरी की हूँ), बल्कि इसलिए कि मुझे पापा बहुत स्मार्ट और
हैंडसम लगते थे। पापा कई बार ऑफिस से आने में दिक्कत होने के कारण मम्मी को जाने
कहते थे तो मैं कहती थी कि ‘नहीं पापा, आप कैसे भी करके आओ’। पापा के क्यूँ पूछने पर मैं धीरे-से पापा को कान में कहती
थी कि ‘मम्मी स्मार्ट नहीं
लगती न!’
वैसे चाहे मम्मी आई हो
या पापा आए हो, मुझे मेरी टीचर ‘रूपा दीदी’ से बहुत डर लगता था कि पता
नहीं कहीं मेरी शिकायत न कर दे। खैर शिकायत तो कभी हुई नहीं, पीठ पीछे बहुत तारीफ मिल
जाती थी J।
मेरी बड़ी दीदी का घर
का नाम सोनू है, छोटी दीदी का पिंकू, छोटी बहन का निक्की, दोनों चचेरे भाईयों का नाम
गजेन – बीरन, चचेरी बहन का नाम अनीता, बस सिर्फ एक मेरा ही नाम
नहीं सोचा गया किसी से। कुछ नाम नहीं होने के कारण लोग बुतरु-बुतरु बुलाते थे, जो बाद में ‘बुटरु’ में तब्दील हो गया। इस बात
का गुस्सा मुझे बहुत रहता था बचपन में कि ये भी कोई नाम है? मेरी सहेलियाँ कभी घर आती और
किसी के मुँह से बन्दना की जगह बुटरु निकल जाता तो मेरा पारा हाइ हो जाया करता था।
कई बार तो सहेलियों के घर आने से पहले सबको मैं ताकीद कर देती थी कि कोई भी मुझे
बुटरु कह के नहीं बुलाएगा। एक-दो बार सभी ने इस बात का ख्याल भी रखा था, लेकिन फिर मुझे ही अजीब लगने
लगा कि बन्दना सुनने से अच्छा बुटरु ही ठीक है। फिर कुछ दिनों के बाद मैंने एक दिन
रसोई में जाकर खुद ही कह दिया, ‘मम्मी! मुझे जैसे बुलाती हो, वैसे ही बुलाना अभी मेरी सहेलियों के सामने। मुझे वही
नॉर्मल लगता है।’
स्कूल से आते ही मैं
रसोई के दरवाजे में खड़ी हो जाया करती थी, और मम्मी को स्कूल मे जो कुछ भी होता था, पूरे का पूरा सुनाया करती
थी। मेरी बातों को सब सुनते थे, बस मेरा छोटा भाई उसे पसंद नहीं था स्कूल की बात घर पर
बताना। पापा के लिए एक चीज़ मैं स्पेशल रखा करती थी जो सिर्फ पापा के आने पर ही
सबके साथ सुनाया करती थी, और वो स्पेशल चीज़ थी स्कूल में सुना हुआ कोई नया जोक। जोक
को भूल न जाऊँ घर तक पहुँचते-पहुँचते, सो मैं रास्ते-भर उसे दोहराया करती थी।
स्कूल से लौटने से याद
आया कि मेरे फ्लैट में एक बंगाली परिवार भी था, जिसकी इकलौती बेटी मेरे से एक साल जूनियर थी और वो हमेशा
मेरे साथ स्कूल जाती थी, मगर आते वक़्त अक्सर मैं उसको भूल जाती थी और आगे निकल आती थी अनीता के साथ।
फिर बीच रास्ते मे याद आता था कि ‘जा! रूपा को तो पीछे भुल आए’। फिर मैं वहीं बीच रास्ते में उसका इंतज़ार करती कि वो मिल
जाएँ और हम साथ-साथ अपनी बिल्डिंग में प्रवेश करे। नहीं तो उसकी माँ मुझसे पूछेगी
कि रूपा कहाँ है? उनको जवाब देने से
बचने के लिए मैं वहीं रास्ते में इंतज़ार करने में अपनी भलाई समझती थी।
पापा ऑफिस से आने के
बाद अक्सर शाम को बाहर निकल जाते थे, अगर कोई बाज़ार का काम नहीं हो तो। कभी किसी अंकल के यहाँ
तो कभी किसी रिश्तेदार, जान-पहचान के यहाँ तो कभी किसी काम से ही, मगर अक्सर अकेले ही जाते थे। और मम्मी के बजाय हम ही शिकायत
करते थे कि आप अकेले-अकेले क्यूँ चले जाते है, मम्मी को क्या घूमने का मन नहीं करता है क्या? तो पापा का कहना होता था कि
तुम्हारी मम्मी तैयार होने मे बहुत टाइम लगाती है, उतनी देर में तो हम घूम के आ जाएगे। कुछ दिनों तक ऐसा ही
चला। पापा को जब कभी भूले-भटके मन करता, तब ही मम्मी को बाहर घुमाने ले जाते। इक दिन मैंने पापा को
ऑफिस से आने के बाद देखा कि वो फिर से तैयार हो रहे है। मैंने स्कूटर की चाबी छुपा
दी और फिर पापा से पूछा – ‘आप कहीं बाहर जा रहे हैं पापा?’। उन्होने ने हाँ में सिर
हिलाया। ‘कहाँ जा रहे हैं?- मेरे यह पूछने पर उन्होने
कहा – ‘एक जगह’ [पापा कभी जगह का नाम नहीं
बताते थे, पूछने पर बस यही कहते
थे –एक जगह]
‘पापा आप ५ मिनट रुकोगे, मुझे एक काम है’
‘ठीक है, जल्दी करो’ –ऐसा कह कर वो फिर से तैयार
होने लगे। उनकी एक आदत थी वो इंतज़ार नहीं करते थे, अगर मैं ५ मिनट से ज्यादा टाइम लेती तो उनकी स्कूटर तो
पक्का से फुर्र हो जाती।
मैं रसोई में दौड़कर
मम्मी को बोलने गई कि ‘मम्मी! जल्दी करो... पापा तुमको ५ मिनट में तैयार होने बोले हैं। शीला अंकल के
यहाँ जा रहे हैं।’ फिर मम्मी के समझने
से पहले ही उनके लिए साड़ी और मैचिंग की सारी चीज़ें निकाल कर उनको तैयार कराने लगी।
५ मिनट से ज्यादा होने पर पापा ने आवाज़ दिया कि जल्दी करो। मैं दौड़ कर पापा के पास
गई और कही कि रुकिए मम्मी तैयार हो रही है। ऐसे भी स्कूटर का चाबी उनको चमका के
दिखा दिये थे।
‘मम्मी कहाँ जाएगी?’
‘घूमने! और कहाँ?’
‘कहाँ घूमने जाएगी मेरे
साथ?
‘एक जगह’ – ऐसा कह कर मैं वापस मम्मी
के पास गई और उनको तैयार करा के लायी और फिर स्कूटर का चाबी दिये। फिर हँसते हुये
कहे कि ‘पापा! अगली बार से
मम्मी को तैयार होने लेट नहीं होगा।’ उधर मम्मी परेशान कि खाना तो बनाए ही नहीं है। मम्मी को भी
कहे कि ‘टेंशन मत लो, खाना हम बना लेंगे, तुम आज पापा का वो ‘एक जगह’ घूम के आ ही जाओ।’ उस दिन के बाद से हम बहन सब
ये वाला खेल अक्सर खेलते थे, पापा के साथ। कभी-कभी तो पापा–मम्मी दोनों को अलग–अलग जाकर
बोल देते थे कि ‘बोल रहे हैं/रही हैं बाहर
जाने के लिए तैयार होने को’ और तैयार करा के भेज देते थे। पापा तो हंस देते थे बस, मम्मी ही बोलती थी कि तुमलोग
क्यूँ ऐसी बदमाशी करती हो?। हम भी बेशरम से बोलते थे कि ‘अभी नहीं घूमोगी तो बुड्ढी होने
के बाद घूमने का शौक पूरा करोगी! एक तो कभी डिमांड करने ही नहीं आता कि घूमने चलिये।
बाद में कहीं हमलोगों को दोष दोगी कि तुमलोगों के कारण कभी अपना शौक पूरा नहीं किए....
वगैरह वगैरह J
ऐसी कितनी ही बातें अभी
भी अनकही ही हैं, आज सब इसलिए याद आने लगे
क्यूंकि आज सुबह-सुबह ही पापा ने फोन किया था। आज मुझे मैकेनिकल इंजीनियरिंग के बच्चों
को इंडस्ट्रियल टूर पर ले जाना था और उसके लिए मुझे ५.३० सुबह तक तैयार होना था। इसके
लिए मुझे ४ -४.३० सुबह तक तो उठना था, अब आदत तो ८ बजे की थी। सो मैंने
अपने एक पड़ोसी को कह के रखा कि आप दरवाजा खटखटा देना, अगर उठ जाए तो। फिर भी मुझे डाउट
था अपने उठने पर, सो मैंने मम्मी को फोन
करके उठाने की ज़िम्मेदारी दे दी। मुझे ये भी पता था कि जगाने के लिए मम्मी नहीं पापा
ही फोन करेगे। पता नहीं ऐसा क्यूँ होता है? जब भी कभी किसी काम के लिए, ट्रेन पकड़ना हो या कुछ और काम, मुझे रात-भर नींद नहीं आती। घंटे-घंटे
की देरी मे उठ कर टाइम चेक करती रहती हूँ। आज भी ऐसे ही करके मैं सो नहीं पायी ढंग
से, उसपे ठीक ४.१५ को घर से
फोन आया। उस समय मुझे नींद अच्छी आ रही थी, लालची मन ने १० मिनट और सोने के लिए फोन पे झूठ बोल दिया कि
‘हाँ पापा! जाग गए है।’ १० मिनट बाद फिर फोन आया तो हम
झट से उठ के फोन रिसीव करके बोले कि ‘ हाँ पापा! इस बार पक्का से उठ गए हैं।’ उधर से पापा हंसने लगे और बोले
कि हमको पता था कि तुम फिर से सो जाओगी। फिर जब हम ब्रश कर रहे थे तो पापा ने फिर से
एक बार फोन किया ये चेक करने के लिए कि हम सही में उठे है कि नहीं। इस बार भी हम पापा
को बोले कि ‘हाँ पापा! हम सच का उठ
गए हैं।’ और ब्रश की आवाज़ सुनकर
भी उनको यकीन आ गया, तब जाके वो दोबारा सोने गए। आज सुबह से बारिश हो रही थी, पटना और उसके आस-पास जगहों में, तो उसी किसी बारिश के ठंडे झोंकों
में से किसी एक में पापा का इस तरह से मुझे जगाना अचानक से बहुत याद आने लगा।