Thursday, November 8, 2007

मन का दर्पण



बहुत
दिनों के बाद, इस शीशे में,
देख रही हूँ मैं;
हाँ.. एक शिकन भी तो नहीं है,
पिछली यादों की;
खुश हूँ मैं,चेहरे से मेरे
यही तो झलकता है;
वक़्त की माया भी खूब है,
कितने ही ज़ख्म दिए और आज
एक दाग भी नहीं दिखता है;
पिछली बार खुद को
कब देखा था, याद नहीं..
हाँ..मगर टूटने की आवाज़ ज़रूर सुनी थी,
मन का दर्पण था वो मेरा..
ये मैं जो दिखती हूँ आज,
इस शीशे को तो मैंने बनाया है....

4 comments:

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

काफ़ी खामोशी थी यहा.. सोचा तोडता जाऊ.. I truly say you write with full of emotions..

Cheers and try to look for different shades of life..

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

thanx for the cheers u sent thru this comment.. i really needed it....n yes i m trying to collect every shades of color to complete this picture called life.....

Yashwant R. B. Mathur said...

बहुत बढ़िया लिखा है आपने.

सादर

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

गहन अभिव्यक्ति ...स्वयं से पहचान करती हुई