Wednesday, March 4, 2009

चलो अच्छा हुआ तुम चले गए तो...



दर्द छिपाने की कोशिश में मैं क्या न करती गई।
कभी धूल के बहाने सच को पोंछती गई,
कभी होठों में झूठ के सौ रंग भरती गई।
कोई शिकायत नहीं, सबको बस यही कहती गई,
दूसरों में जब गिनाने लगे, तो तुम्हारा
परिचय भी मैं परायों में करती गई।
यही दस्तूर है जब सबकी खुशियों का,
तो मैं कंटीली राह ही सही, पर चलती गई।
नहीं मानती अब भी मैं ऊपरवाले को,
अपनी किस्मत को मैं ख़ुद ही लिखती गई।
कल तुम्हारा साथ लिखा था , आज उन्हीं
हथेलियों में बिछोह की लकीर खींचती गई।
क्या समझोगे तुम इस पीड़ा को, तुमको
जानने में जब सदियाँ भी मुझे कम लगती गई।
चलो अच्छा हुआ तुम चले गए तो,
कुछ दुनिया देख ली, कुछ समझदारी भी आती गई।