Thursday, October 1, 2009

अकेली हूँ, अलग हूँ, मगर मजबूर नहीं...

अकेली हूँ, अलग हूँ,
मगर मजबूर नहीं;
मेरा जब जी करता है
तुम्हें याद कर लेती हूँ.
बंद आंखों से तुम्हारी तपिश,
मैं जब चाहूँ, छू सकती हूँ.

मुझे सपने आते है, तुम्हारे वाले ही,
मेरे ही द्वारा बनाये हुए;
किसी और के सपने मैं जीती नहीं.
मुझे पता है मैं
तुम्हें क्यूँ याद करती हूँ;
तुम्हारी तरह,
दूसरों के कहे अनुसार मैं तुम्हें
भूलने की कोशिश कभी करती नहीं.

तुम कैसे मेरे करीब
आ गए इतने, यह भी
मैं तुम्हें बता सकती हूँ;
अब तो मैं भी
जानने लगी हूँ कि
तुमसे दूर जाकर
खुश रहना,
मेरे जीवन का
सबसे बड़ा झूठ कहलायेगा.

पर जो सच आज
मैं लिख रही हूँ,
क्या कभी भी तू
इसे पढ़ पायेगा?

2 comments:

Sandeep said...

bahut hi badhiya...loads of passion

Anonymous said...

Hey I can feel my emotions in this poem... I liked it...