Thursday, December 24, 2009

"मोमो" --- a sweet friend of mine.... n I call him by this name only....



कुछ उसके मिजाज़ गरम-से है,
कुछ उसके जज्बात नरम-से है;

बातें उसकी इतनी तीखी कि
सबको रुला जाती है,
फिर कैसी चेहरे में ये शोखी कि
सबको लुभा जाती है;

कुछ शरारत की मीठी चटनी में
लिपटा-हुआ सा है,
पर अंदर जाने कितने कड़वे अहसासों में
सिमटा-हुआ सा है;

ज़िन्दगी के भाप में कब-से
पकता रहा है,
वक़्त की आंच में लगभग
उबलता रहा है;

फिर भी रहता हर बदलते पलों में
वो इक जैसा-ही,
"मोमो" सबका ही प्यारा ओर
पसंदीदा भी.

Note: Momo(Steamed dumpling) is a tibetan/chinese food.

Sunday, December 20, 2009

कब तक?????

कब तक तुम मुझसे बातें करोगे,
कब तक मैं फोन को घूरा करुँगी;

कब तक तुम मेरी हर खबर लेते रहोगे,
कब तक मैं तुमसे सारा संसार बुना करुँगी;

कब तक तुम अपनी उलझन में मुझे बाँधा करोगे,
कब तक मैं इस घुटन से बाहर निकलूँगी;

कब तक तुम मुझको इतना सताते रहोगे,
कब तक मैं तुम्हें याद कर लिखती रहूँगी;

कब तक मेरी बात अपने दोस्त तक भेजा करोगे,
कब तक तुम्हारी कविता मैं उसे सुनाया करुँगी;

कब तक पन्नों पर तुम पर शक़ की जगह लेते रहोगे,
कब तक तुमपे झूठ की चादर डाल दिया करुँगी;

कब तक तुम मुझे गुमराह किया करोगे,
कब तक और मैं तुम्हारी राह तका करुँगी;

कब तक तुम मौन बन सब बोल जाया करोगे,
कब तक मैं इतना कह के भी चुप रहा करुँगी;

कब तक बोलो कब तक?
कब तक तुम मेरा मन रखा करोगे,
कब तक मैं भी अपना मन तुम्हारे लिए रखा करुँगी.....

Wednesday, December 16, 2009

इक दिन ऐसा हो-

इक दिन ऐसा हो-
जब मैं न करूँ
कोई भी सवाल तुमसे,
तुम भी जवाब देना
भुल जाना.

इक दिन ऐसा हो-
जब हम बन जाए
फिर-से अनजाने,
और कोशिश भी न करे
इक-दूसरे को जानना.

इक दिन ऐसा हो-
जब हँसना न पड़े
झूठ-मूठ का तुम्हें,
और न ही उत्तरस्वरूप
मुझे भी पड़े मुस्कुराना.

इक दिन ऐसा हो-
जब तुम तोड़ जाओ
हमेशा के लिए दिल मेरा,
और मैं भी न चाहूँ
दोबारा खुद को जोड़ना.

इक दिन ऐसा हो-
जब मुझको हिचकी
आए भी तो,
दूर कहीं तुम भी
न खाँसना.

इक दिन ऐसा हो-
जब तुम्हारे दर्द पर
तुम ही सिर्फ रोना,
और मेरे आँसू मेरे ही
आँखों से चाहे निकलना.

इक दिन ऐसा हो-
जब वक़्त ही न मिले
कुछ सोचने को,
और मैं भूल जाऊँ
इन पन्नों को बेवज़ह नम करना.

Thursday, December 3, 2009

तब मन को मसोसा है मैंने.....

जाने क्या मैं ढूँढ़ती,
मैं सबकी आँखों में.
क्या सोचते होगे लोग
मेरे बारे में.

शायद कुछ और ही
समझने को मिले.
इस जीवनरूपी पहेली का हल
किसी और से ही सही,
मगर कुछ तो मिले.

हर दफ़ा मैंने उनको
सुना; वो भी सुना,
जो नहीं थी किसी ने कही.
हर दफ़ा भीड़ में मैं जब भी चली;
औरों की तरह अकेले ही बढ़ी.

लोगों की बातें सुनते हुए
कई बार गौर किया है मैंने;
मैंने ऐसा क्यूँ नहीं सोचा?--
सोच के तब मन को मसोसा है मैंने.

Tuesday, December 1, 2009

ये मन भी न कितना अजीब है!

ये मन भी न कितना अजीब है!

हर पल को संजो-संजो कर
रखने की कोशिश करता है;
मगर कुछ पल बिखर जाए,
तो ही अच्छा रहता है.

जब ऐसे कई पल
मन में जमने लगते है;
तब टीस-टीस करती
हजारों ख्वाहिशें चुभने लगते है.

ये मन भी न कितना अजीब है!

जब देखो चुम्बक बन जाता है;
जिसे भूलने की कोशिश करती हूँ,
उसे ही कस कर पकड़ने लगता है.

कुछ यादें, नुकीले धार वाले
लोहे की कील की तरह होती है;
और मन इन कीलों की तरफ
बरबस-ही आकर्षित होने लगता है.

ये मन भी न कितना अजीब है!.