Sunday, May 17, 2009

ज़िन्दगी जैसे मेरी परियों की कहानी....

हाँ मैं थक गई हूँ
तितलियों के पीछे भागते हुए,
हाँ मैं ऊब गई हूँ अब.
पुतलों के संग जीवन व्यतीत करते हुए
कब किसको अच्छा लगा है?
संग अपने उनकी भी बातें स्वयं लिखना
व कहना, बड़ी दुर्दशा है.
कोई तो हो जो कहें अपने मन की बातें
तो मैं जीवन भर सुनती रहूँ...
कब तक खुद की कहानियाँ
मैं यूँ ही बुनती रहूँ?
ढूंढती उस राजा को, जो
बदल दे मेरी जिंदगानी;
ढेर सारी खुशियों के बदले
ले ले मेरी सारी वीरानी.
ज़िन्दगी जैसे मेरी परियों की कहानी
और मैं
इन सब कहानियों की अकेली रानी......

जीवन इक नाटक जो होता....

जीवन इक नाटक जो होता तो अच्छा रहता....

सारे किरदार पहले से मुझे मालूम रह्ते
और जान भी जाती मैं
उनकी हिस्सेदारी अपने जीवन में.

तब न भय रहता किसी के छूट जाने का
और न ही
कोई रोमांच किसी नए के जुड़ जाने का.

शायद जीवन तब ज्यादा तरतीब से सजी रहती,
मेरे मन के अंदरूनी दीवारों में
ये टूटन, चुभन, खरोंच, दरारें नहीं पड़ी होती.

कब कौन क्या कैसे बोल जायेगा व
कौन बिना कहे क्या सदमा दे जायेगा,
ऐसे हादसों का क्रम तब कुछ कम हो पाता.

कहानी के संवाद तो पहले ही याद कर लेती,
हर पग जीवन का फिर पहचाना-सा लगता,
भले ही दो कदम भी चलना दूभर लगता.

सहमती न मैं फिर कभी किसी रिश्ते की बुनियाद पर,
न ही ठहरती किसी की आस लिए अंतहीन विराम पर.

....क्यूँकि मुझे इस नाटक का अंत तो पता रहता.