जैसे कुछ पन्ने उड़ कर
कभी वापस आते नहीं,
तुम भी किस्तों में
उड़ जाते तो अच्छा रहता.
तुम इतने गहरे व तीखे
हो चले हो कि
मन की गिरहें भी काट लूँ, तो भी
तुम्हारा जाना अब संभव नहीं लगता.
गीली मिटटी –सा मेरा मन
ढले भी तो सिर्फ तेरे सांचे में;
मैं सूख कर भी ढूँढूं तुम्हें,
बनते दरारों के रेखाजाल में.
कोई पीपल - सा बीज
मन में बो गए हो तुम;
यादें आकर सींचती रही,
धीरे-धीरे तुम बढ़ने लगे हो मुझमें.
मैं तंग आ गई हूँ अब तुमसे
तुम चले जाओ दूर मुझसे;
इक घुटन – सी निकलती आह
कि क्यूँ तुम आए मेरे पास?
मत आओ मुझे बहलाने,
जब होऊं तुम्हें लेकर मैं उदास;
तुम जैसे पलट के फिर मुस्काते,
मानो मेरे हर सवालों का तुम जवाब.
30 comments:
होली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ|
अति सुन्दर
कमेन्ट में लिंक कैसे जोड़ें?
एक बेहतरीन अश`आर के साथ पुन: आगमन पर आपका हार्दिक स्वागत है.
कोमल अहसासों से परिपूर्ण एक बहुत ही भावभीनी रचना जो मन को गहराई तक छू गयी ! बहुत सुन्दर एवं भावपूर्ण प्रस्तुति ! बधाई एवं शुभकामनायें !
आप को सपरिवार होली की हार्दिक शुभ कामनाएं.
कोई पीपल-सा बीज
मन में बो गए हो तुम,
यादें आकर सींचती रही,
धीरे-धीरे तुम बढ़ने लगे हो मुझमें।
कविता में भावों का नयापन अच्छा लगा।
होली की अशेष शुभकामनाएं।
क्या बात है...
होली की बहुत बहुत शुभकामनाएं.
खूबसूरती से लिखे ख़याल ...
होली की शुभकामनायें
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (21-3-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
गीली मिटटी –सा मेरा मन
ढले भी तो सिर्फ तेरे सांचे में;
मैं सूख कर भी ढूँढूं तुम्हें,
बनते दरारों के रेखाजाल में.
बहुत कोमल भाव हैं सुन्दर रचना
आपको होली की हार्दिक शुभकामनाएँ|
नेह और अपनेपन के
इंद्रधनुषी रंगों से सजी होली
उमंग और उल्लास का गुलाल
हमारे जीवनों मे उंडेल दे.
आप को सपरिवार होली की ढेरों शुभकामनाएं.
सादर
डोरोथी.
होली की हार्दिक शुभकामनायें ...
बहुत सुन्दर रचना !
होली की शुभकामनायें !
गीली मिटटी –सा मेरा मन
ढले भी तो सिर्फ तेरे सांचे में;
मैं सूख कर भी ढूँढूं तुम्हें,
बनते दरारों के रेखाजाल में.
कविता में कोमल भाव हैं भावों का नयापन बहुत अच्छा लगा। अति सुन्दर रचना.
कोई पीपल - सा बीज
मन में बो गए हो तुम;
यादें आकर सींचती रही,
धीरे-धीरे तुम बढ़ने लगे हो मुझमें.
बहुत खूब ... शब्दों और भाव का ... गहरे एहसास का ऐसा जादू उतारा है आपने इस नज़्म में की निःशब्द हूँ क्या लिखूं ....
सच में कभी कभी चाहने पर भी छूट नही पाता कोई ... इतना गहरा उतार जाता है की हिस्सा बन जाता है ...
आपको और आपके पूरे परिवार को होली की मंगल कामनाएँ ...
सुंदर भावपूर्ण रचना.उलहाना भी प्यार भी.
@ पटाली, योगेन्द्र जी,संजय जी, महेंद्र जी, यशवंत जी, संगीता जी, वंदना जी, वर्मा जी, कुसुमेश जी, डोरोथी जी,भाटिया जी, इन्द्रनील जी, सवाई जी, तिवारी जी, दिगम्बर जी व राकेश जी को बहुत बहुत धन्यवाद ब्लॉग में पधारने के लिए! व प्रोत्साहन के लिए भी.
वंदना जी और संगीता जी, चर्चा मंच में इस पोस्ट को शामिल करने के लिए बहुत धन्यवाद!
कोई पीपल - सा बीज
मन में बो गए हो तुम;
यादें आकर सींचती रही,
धीरे-धीरे तुम बढ़ने लगे हो मुझमें
खूबसूरत एहसास
भावनाओं के कालिस स्पंदनों का अहसास कराती कविता जो पाठक को अपने से पल भर में जोड़ लेती है। भावनाओं के आव्ग को जिस तरह शब्दों में डाला गया है उससे कविता निखरी-निखरी और बेहद चटख हो गई है।
कोई पीपल - सा बीज
मन में बो गए हो तुम;
यादें आकर सींचती रही,
धीरे-धीरे तुम बढ़ने लगे हो मुझमें
waah...adbhut...ek alag sa nayapan liye hue hai aapki rachna..padhkar bahut achha laga...
सुन्दर बिम्बों से सजी बढ़िया रचना!
A cup of life full of feelings !
mushkil ehsason ko sunder shabd diye hai.
........
बहुत खुबसुरत शब्दों से दिल की बातें बया किया आपने..एहसासपूर्ण रचना..
जैसे कुछ पन्ने उड़ कर
कभी वापस आते नहीं,
तुम भी किस्तों में
उड़ जाते तो अच्छा रहता.
तुम इतने गहरे व तीखे
हो चले हो कि
मन की गिरहें भी काट लूँ, तो भी
तुम्हारा जाना अब संभव नहीं लगता.
kuch kahun to kya kahun ... kishton mein ud jao , behtar hai !
apni yah rachna vatvriksh ke liye mail ker dijiye rasprabha@gmail.com per parichay tasweer blog link ke saath
The Indescribable Clash with Reality.
वैसे तो नाम ही पर्याप्त था
मगर आगे बढा मैं
कुछ अर्थ समझ में तो आये,
पर सब लिख न सकी ..
और कुछ
जिन्हें न समझ सकी,
उसे अंकित करने की कोशिश करती गयी...
आदरणीय और प्रिय वंदना जी
"......वो इतनी रौशनी भर देता है कि आँखें खुलती भी नहीं और मैं सिर पर टोपी लगा के नज़रें चुरा के निकल जाती हूँ. बहाने हज़ार मिल जाते है, दलीलों को सच बनाने के लिए, जैसे मैं लिखती हूँ यह कह कर कि लिख लूँ तो जी लेती हूँ. जीने के लिए लिखना आवश्यक है क्या? ‘नहीं’ उत्तर का उत्तर तो नहीं मिला मुझे आज तक, इसलिए लिखती चली आई हूँ. यदि आवश्यक है भी तो फिर सोचने लगती हूँ कि क्या लिखूं? कि जी सकूँ."
और
....
"तुम इतने गहरे व तीखे
हो चले हो कि
मन की गिरहें भी काट लूँ, तो भी
तुम्हारा जाना अब संभव नहीं लगता."
आपका एक एक शब्द स्वाध्याय के जगत में ले जाता है...जाने कब पढना छूट गया ....जीवन ने ना जाने कब खा लिए जीवन के रंग ....आज आपके दो पोस्ट पढ़े ...दुःख भी हुआ की अबतक आपको क्यूँ नही पढ़ पाया था ....आगे से आता रहूँगा जब भी मौका मिलेगा ..आपके स्नेह और आशीर्वाद से बहुत कुछ सीखने को मिलेगा ...हम जैसे लाला की नौकरी करने वालों को वैसे ही देल्ली जैसे नगर में जीने के लिए ..बहुत कुछ देना पड़ता है...समय भी...बड़ी मुस्किल से थोड़ा सा मिलता है ...उसका सदुपयोग करने की कोशिश करता हूँ.
आभारी हूँ चर्चा मंच का जिसने ऐसा साहित्य पढने का मौका दिया.!
सभी पाठकों को नमस्कार व आभार ब्लॉग पर आने के लिए!
@ अभि: ........... इसका मतलब मैं कुछ अच्छा ही समझ लेती हूँ, हे हे.
@आनंद जी: मैं तो बस जो मन में आता है लिख लेती हूँ. आपको अच्छी लगी तो ये तो बहुत खुशी वाली बात हो जाती है मेरे लिए. जीवन के प्रति दृष्टिकोण को मैं अपनी व औरों के नज़र से भी परखना व समझना चाहती हूँ. ऐसे में आप लोगों से मिलना, विचारों को जानना, बहुत सुखद अनुभूति देता है. मैं अब भी मानती हूँ कि मुझे अभि भी बहुत कुछ सीखना बाकी है. आप लोगो से जब कुछ नया जानने व सीखने को मिलता है तो मैं बता नहीं सकती कैसा लगता होगा उस समय मन को.आपसे छोटी हूँ मैं, तो आशीर्वाद का हक मेरा है.... :-)
awesome... simply...
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