आशाओं से दूर छिटक कर,
बैठा होगा कहीं मेरा अंतर्मन,
मैं जब भी ढूँढती हूँ कोने में
दुबका-सा मिल तो जाता है.
नहीं मिलता तो बस एक अहसास,
हर बंदिशों, जिम्मेदारियों से
स्वतंत्र होने का अहसास जो
मेरे मन को पूर्ण होने का भ्रम दे.
ताकि मैं उस अहसास के साथ
पीछे छूट जाने वाले एवं
आगे समय में अनायास ही
जकड़ लेने वाले भयपाश
से पूर्णत: मुक्त हो सकूँ.
और मैं जैसे शून्य में गिरती रहूँ,
अनंत समय के उस पार तक.
जीवंतता के अहसास से भी परे,
मैं जैसे किसी महाशून्य को
महसूस करूँ अपने पेट के भीतर.
और जब भी मैं पलकें खोलूं तो
मेरी बाहें स्वत: खुल जाएँ,
हर मोहपाश से पुन: जुड़कर
अपना जीवन धर्म निभाने के लिए.