Friday, September 23, 2011

क्षोभ


अकेले होने का क्षोभ
जब-जब हावी होने लगता है,
उँगलियाँ बिलबिलाने लगती है कि
यह दर्द उनके बस की बात नहीं.

चेहरों की दुनिया में मुखौटे
खूब बिकते हुए-से दीखते है,
मैं तब सोचने लगती हूँ कि
चेहरे की ही यहाँ कोई कीमत नहीं.

बीती चीजों में ढूँढती हूँ आज,
और आज में मैं कभी रही ही नहीं.
मेरे समय की पटरियाँ चलती तो हैं,
मगर कभी एक दूसरे से सहमत नहीं.

मैं रेत में छेद भी गिन लेती हूँ,
जो बस खालीपन के ही होते है,
और जो बालू मेरे हाथ में बचे है,
मुझे उसकी कोई भी सुध-बुध नहीं.

यह अजीब सा भय ही है जो
अपने वजूद को अपनी ही जिंदगी
के हाथों सौपने में होता है, जबकि
अपने वजूद का अभी तक कोई पता नहीं.

5 comments:

Rahul Ranjan Rai said...

वन्दना aap itana achchha kaise likh lete ho?
kya kahen har rachna pahle se behtar hoti hai!
really nice!

Nidhi said...

sabka yahi haal hai..kamobesh...bandana

संजय भास्‍कर said...

बहुत सुंदर !
कविता को एक नए अंदाज़ में परिभाषित किया है आप ने !

Unknown said...

बीती चीजों में ढूँढती हूँ आज,
और आज में मैं कभी रही ही नहीं.
मेरे समय की पटरियाँ चलती तो हैं,
मगर कभी एक दूसरे से सहमत नहीं.

बहुत सुंदर कविता !

प्रवीण पाण्डेय said...

यही क्षोभ तो जीवन कुछ अलग करने की प्रेरणा देता रहता है।