Friday, September 23, 2011

पूर्ण होने का भ्रम


आशाओं से दूर छिटक कर,
बैठा होगा कहीं मेरा अंतर्मन,
मैं जब भी ढूँढती हूँ कोने में
दुबका-सा मिल तो जाता है.

नहीं मिलता तो बस एक अहसास,
हर बंदिशों, जिम्मेदारियों से
स्वतंत्र होने का अहसास जो
मेरे मन को पूर्ण होने का भ्रम दे.

ताकि मैं उस अहसास के साथ
पीछे छूट जाने वाले एवं
आगे समय में अनायास ही
जकड़ लेने वाले भयपाश
से पूर्णत: मुक्त हो सकूँ.

और मैं जैसे शून्य में गिरती रहूँ,
अनंत समय के उस पार तक.
जीवंतता के अहसास से भी परे,
मैं जैसे किसी महाशून्य को
महसूस करूँ अपने पेट के भीतर.

और जब भी मैं पलकें खोलूं तो
मेरी बाहें स्वत: खुल जाएँ,
हर मोहपाश से पुन: जुड़कर
अपना जीवन धर्म निभाने के लिए.

क्षोभ


अकेले होने का क्षोभ
जब-जब हावी होने लगता है,
उँगलियाँ बिलबिलाने लगती है कि
यह दर्द उनके बस की बात नहीं.

चेहरों की दुनिया में मुखौटे
खूब बिकते हुए-से दीखते है,
मैं तब सोचने लगती हूँ कि
चेहरे की ही यहाँ कोई कीमत नहीं.

बीती चीजों में ढूँढती हूँ आज,
और आज में मैं कभी रही ही नहीं.
मेरे समय की पटरियाँ चलती तो हैं,
मगर कभी एक दूसरे से सहमत नहीं.

मैं रेत में छेद भी गिन लेती हूँ,
जो बस खालीपन के ही होते है,
और जो बालू मेरे हाथ में बचे है,
मुझे उसकी कोई भी सुध-बुध नहीं.

यह अजीब सा भय ही है जो
अपने वजूद को अपनी ही जिंदगी
के हाथों सौपने में होता है, जबकि
अपने वजूद का अभी तक कोई पता नहीं.