मैं तुम्हें सिर्फ
इक ही रंग
दे सकती हूँ।
तुम जब भी
अपने गालों को छुओगे,
देखना, कुछ प्यार-सा रंग
हाथ में भी आ जाएगा।
जो आँखों से छलके
अपनों से दूरियों का एहसास,
ममता के रँग में रँगा
इक आँचल तुम्हें हवा कर
जाएगा।
जो होगे कभी
यूँ ही उदास तुम,
यह भी दुख की स्याही से
लिखा हुआ कोई अक्षर
बन जाएगा।
जो कभी द्वेष मन में सँजोये,
उद्वेलित होने लगो तुम,
तो यह भी क्रोध के तम में
जलकर आग बन जाएगा।
तुम जिस भाव से
इसे लगाओगे,
उस भाव में निहित
रँग ही बस
उभर कर आएगा।
इसलिए हाँ !
मैं तुम्हें सिर्फ
इक ही रँग
दे सकती हूँ।