वह मुझसे पूछता है,
इक दिन, बड़े दिनों के बाद;
क्या तुम परेशान हो,
इन दिनों?
मैं घूरती हूँ,
अपनी आँखों की
परछाईयों को,
नीले दीवार पर।
एक सदी जैसा
पल गुजरने के बाद,
मैं कहती हूँ,
हाँ, शायद या पता नहीं।
फिर उस सदी जैसे
पल को पीछे भेज कर,
मैं उससे पूछती हूँ,
ऐसा क्यूँ पूछे तुम?
तुम्हारे लिखे शब्द
देखे थे मैंने,
कुछ दिनों पहले -
ऐसा कुछ वह मुझसे कहता है।
ऐसा कुछ वह मुझसे कहता है।
मैं हँस कर
सोचती हूँ,
क्यूँ लिख कर
ज़ाहिर होती हूँ?
और मैं फिर से किसी
गर्त में डुबकी लगाकर,
साँसों का घुटना
जारी कर देती हूँ।