है कोशिश यही कि उसे भी मुझसे हो इश्क़ इतना,
ज़रा सा बहकूँ मैं, कि बाँहों में उसके ही है सँभलना।
साँसों की डोर से बँधकर ये तेरा हर पल गुजरना,
तन्हाई के मौसम में तेरे ही लिखे पल को पढ़ना।
ओढ़ा के कोई अमावस की रात, यूँ मुझे कभी भुल जाना,
या टाँकना फिर तारों को, इस तरह फिर याद भी करना।
मेरे काजल के डिब्बी में अपनी नज़र बंद कर आना।
या इन बारिश की बूँदों को मेरे बालों में गूँथ जाना।
देकर ढेर सारे खाली-खाली से पल मुझसे बतियाना,
तो चुपके-से बीते कल के कुछ गुब्बारे भी पकड़ा जाना।
ऐ वक़्त! तेरा पल-पल मेरे आस-पास यूँ मौज़ूद रहना,
है गवाह उस बात का, हक जिससे है तेरा मुक़र जाना।
मगर है कोशिश यही कि तुम्हें भी मुझसे हो इश्क़
इतना,
ज़रा सा बहकूँ मैं, कि बाँहों में अब तुम्हारे ही
है सँभलना।
12 comments:
अपनों के सहारे में समय भी सध जाता है।
:) :)
"ऐ वक़्त! तेरा पल-पल मेरे आस-पास यूँ मौज़ूद रहना,
है गवाह उस बात का, हक जिससे है तेरा मुक़र जाना।"
Vaah!सुन्दर भाव और शब्द!
बहकना और बाहों में संभलना :-)))अच्छा लगा
बहुत खूबसूरत भाव लिए रचना ... बहुत दिनों बाद कुछ लिखा है ...
बाँहों में संभलने के लिए बहकना...बनता है बनता है ..:)
अद्भुत,अच्छी रचना !
अद्भुत,अच्छी रचना !
अद्भुत,अच्छी रचना !
do premiyon me bahakna aur sambhalna banta hai:)
लाजवाब...इन गहरे जज्बात को पढ़कर अच्छा लगा...|
सादर |
http://bulletinofblog.blogspot.in/2012/10/4.html
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