Wednesday, February 6, 2008
यह कैसी दीवार मनों के बीच..??
कैसे मिलाऊं अब मैं तुमसे
अपने मन की भावनाओं से,
और कैसे झट-से मिल लूँ
तेरी अकेली-सी इच्छाओं से;
यह कैसा सुकून
घुट-घुट कर रह जाने में,
यह कैसा जश्न
फिर-से अकेला बन जाने में;
यह कैसी दीवार बन रही है,
मनों के बीच..
इक ईंट रखी मैंने
तेरे ना बताने की तर्ज़ पर,
इक ईंट तूने रखी
अपनी हठधर्मिता को निभाने पर;
दूसरी रखी मैंने, सिर्फ
अपने अहम् को सर्वोपरि बनाने पर,
तो तीसरी तूने भी रख दी
इसी क्रमवार को आगे बढाने पर;
यह कैसी दीवार बन रही है,
मनों के बीच..
गलती तेरी मेरी ही सही
लाभ क्यूँ उठाते पराये है?
यह चून-लेप और कीचड़, इन्होंने ही
तो इन ईंटों पर लगाये है;
मान भी जाओ अब तुम तो
मैं भी जिद से हार रही हूँ,
गीली है मिटटी अभी भी, मत कहना!
-पूरी तरह से सख्त होने का इंतज़ार कर रही हूँ;
यह कैसी दीवार बन रही है
मनों के बीच....
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2 comments:
इतनी अच्छी कविता पर एक भी कमेन्ट नहीं...:(
सच में संवादहीनता और फिर अहम्, एक अच्छे से बने बनाए रिश्ते को ख़त्म कर देते हैं.....
कहीं मन को छू गयी ये कविता...
sekhar wahi baat hai na...jo dikhta hai, wahi beekta hai...marketing ki bahut jarurat hai..:)
मान भी जाओ अब तुम तो
मैं भी जिद से हार रही हूँ,
गीली है मिटटी अभी भी, मत कहना!
-पूरी तरह से सख्त होने का इंतज़ार कर रही हूँ;
pyara sa manuhar!!
shandaar rachna....
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