Thursday, March 13, 2008

अच्छा नहीं लगता है....



सब कुछ तो सही है;
ऐसा कुछ भी तो नहीं,
जो मेरे जीवन में नहीं है;
फिर क्या है, जो मन को खलता है;
सोचती हूँ, क्या है वो
जो अच्छा नहीं लगता है..

होठों पर हंसी सँवार के
नयनों से तीव्र-प्रहार करना
अच्छा नहीं लगता है..

मधुर वचनों के तानों-बानों में
कटुता का रंग भरना
अच्छा नहीं लगता है..

शत्रुओं-सा व्यवहार करके
मित्रता का ढोंग रचना
अच्छा नहीं लगता है..

मरहम सदृश दो प्रेम भरे शब्द की जगह
छल का दंश चुभोना
अच्छा नहीं लगता है..

वो मानवता का दंभ भर के
पाषानों की भाषा बोलना
अच्छा नहीं लगता है..

शब्दों में भरपूर स्नेह जता के
मन में रिक्तता का घर कर जाना
अच्छा नहीं लगता है..

रिश्तों में क्लेश की आग लगा के
शीतलता को महसूस करना
अच्छा नहीं लगता है..

हाँ, मुझे हर वो कुविचार
जो स्वयं को स्वीकार नहीं
मगर दूसरों पर परखना
अच्छा नहीं लगता है..

और अमृत-से इस जीवनधार में
चुपचाप-सी, यूँ हर विष का पान करना
'वंदना' को सचमुच में
अच्छा नहीं लगता है....

4 comments:

संजय भास्‍कर said...

बहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.

संजय भास्‍कर said...

बहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.

संजय भास्‍कर said...

बस इतना कहूँगा कि मुझे भाव बहुत सुन्दर लगे

Amrendra Nath Tripathi said...

जीवन के अप्रिय-पक्ष से संवेदित होता कविता का प्रिय-पक्ष ! अंततः निराश के लिए शब्दों की दुनिया सहारा सी बनती है !