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आज भी
मेरे कमरे में, वो
हमेशा की तरह झाँक रही है.
मेरे सुख व दुःख,
आक्रोश व पश्चात्ताप,
जय व पराजय,
जैसे हर क्षण का सदियों से, वो
हिसाब रख रही है.
कभी तुम्हें-भूल मुझे सुलाने की प्रयत्न,
तो कभी तुम्हारी-ही याद में
जगे रहने की मनुहार करती है वो.
एक क्षण को तो तुमसे ही
दूर कर जाती है वो,
तो दूसरे ही क्षण तुम्हारी
ही बातें गुनगुनाती रहती है वो.
मेरे सबसे करीब रहते हुए भी
क्यूँ तुम इतनी दूर रहती हो,
कभी बुरी, तो कभी इतनी अच्छी क्यूँ लगती हो.
"अमावस की रात में भी रोशनी के दायरें मिलते हैं,
चाँद नहीं तो क्या हुआ, सितारें भी चमकते हैं"- यूँ कहते हुए
तुम कितना मुझे समझाती हो.
हाँ! मेरी खामोशी,
मेरा कितना ख्याल तुम रखती हो.
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