खवाबों के झूठे प्यालों में, मैंने
पिया है तेरी यादों का जाम
फ़िर-से.
देखो क्या नशा छाया है,
समय फ़िर पीछे लौट आया है।
देखूं मैं तुझको संग अपने,
चलने लगी तेरे हाथों को थाम
फ़िर-से।
देखो क्या नशा छाया है,
समय फ़िर पीछे लौट आया है।
प्यार-भरी बातें भी होने लगी,
तेरी बाहों में पिघलने लगी मैं, जैसे कोई मोम
फ़िर-से।
देखो क्या नशा छाया है ,
समय फ़िर पीछे लौट आया है।
मिलने की खुशियाँ फ़िर बढ़ने लगी,
और जवां भी होने लगी हर पिछली कसम
फ़िर-से।
देखो क्या नशा छाया है,
समय फ़िर पीछे लौट आया है।
साथ ये जो सदा रहता ऐसी किस्मत
अपनी कहाँ, जुदा हो ही गए हम
फ़िर-से।
देखो सपने में भी तुझको अलग पाया है,
समय भी क्या कभी पीछे लौट पाया है.
2 comments:
बहुत ही अच्छी रचना है!
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तख़लीक़-ए-नज़र
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