Saturday, April 4, 2009

मैं 'कस्तूरी मृग'....

तुम मौसम भी होते,
तो इंतज़ार रहता
बार-बार तेरे वापस आने का.

तुम परछाई भी होते,
तो अहसास रहता
हर पल तेरे पास होने का.

तुम तनहाई भी होते
तो मन करता
तेरी बाँहों में लिपट के सो जाने का.

तुम ख्वाब भी होते,
तो जी करता
तुझको आँखों में बसा लेने का.

तुम महावर भर भी होते,
तो रंग तुम्हारा ही रहता
तन-मन के हर कोनों का.

तुम स्याही भी होते,
तो लिखती हर जीवन-अध्याय
नाम होता तेरा मेरे हर पन्नों का.

तुम खुशबु भी होते,
तो छुपा लेती नाभि में
मैं 'कस्तूरी मृग' चाहूँ तुझमें ही में खोने का.

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