मालूम नहीं कैसे उनके चेहरे पर
वो प्यारी-सी लकीर यूँ ही बरबस
बिना बात के आ जाती है.
शायद कुछ याद बन के आ जाते है,
कुछ अकारण,
और कुछ तो मुखौटे की तरह
किसी कारण-विशेष ही आते है.
मैं भी मुस्कुरा लेती हूँ कई बार,
अकसर मगर यादों की लकीरें
न चाहते हुए भी
एक खरोंच भेंट-स्वरुप दे जाती है;
मुखौटे के भीतर भी दम घुटने को होता है,
जीने की चाहत जैसे कम होने लगती है
- साँसों के उखड़ने के तरह;
और बिना कारण
तो कुछ भी नहीं मिलता,
फिर यह क्षणिक मुस्कुराहट भी कैसे?
सोचती हूँ क्या है वो जो,
फिर भी हँसने को मजबूर करती है;
शायद मेरी तरह और भी है,
इक-दूसरे को इक ही मुखौटा पहने देखना
व इक जैसा ही दागनुमा चेहरा,
अनगिनत यादों की निशानी -
शायद यही संजोग मुझको
मुस्कुराने पर विवश कर देती है.
3 comments:
बहुत ख़ूबसूरत नज़्म है
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विज्ञान । HASH OUT SCIENCE
बहुत ही सुन्दर रचना !
Word Verification हटालें तो टिपण्णी देने में सुविधा होगी
सराहना के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद्....
वैसे अनिलजी मैंने word verification हटा लिया है....
हमें भी ज्ञात नहीं था कि हमने ऐसी settings कर रखी है....
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