मुझसे दूर रह के
कैसे तुम खुश रह लेते हो?
मुझको भी सिखा दो जीना,
जैसे मेरे बिन तुम जी लेते हो.
कटती नहीं जब दिन व रातें,
गिनती रहती मैं हर घडियां;
तकती रहती सिर्फ शून्य को,
बेबस-सी मेरी ये अँखियाँ.
मुझको भी तुम सब भुलाना सिखा दो,
कैसे तुम मुझको भुल कर रह लेते हो?
दुःख में भी मुस्कुरा सकूँ, छुपा सकूँ,
जैसे तुम सबसे हँस-बोल लेते हो.
क्यूँ तुम मेरी तरह
बन के रहते नहीं कभी,
क्यूँ तुम्हारी जगह
मुझे कभी मिलती नहीं.
इस दर्द का असर कम हो कैसे,
कैसे तुम सब दर्द को पी लेते हो?
कैसे मैं सिल लूँ, मन के शब्दों को,
जैसे तुम मुझसे यूँ चुप रह लेते हो.
कह दो कि मुझसे कोई रिश्ता
तुम्हारा कभी था ही नहीं;
ये रिश्ता न होता तो
ये सब भी तो होता नहीं.
कैसे तुझे पहचानने से इनकार कर दूँ,
कैसे तुम मुझसे मुँह मोड़ लेते हो?
हो सके तो बना दो अपनी तरह ही,
जैसे तुम पत्थरदिल अब बने फिरते हो.
4 comments:
बहुत ही गहराई है इस कविता मे ......एक सुन्दर अभिव्यक्ति
बधाई, रचना सुन्दर बन पड़ी है
जी आप सबका धन्यवाद् ब्लॉग में पधारने के लिए.
मुझसे दूर रह के
कैसे तुम खुश रह लेते हो?
कितना मासूम सा सवाल है -- जवाब मिलना ही चाहिये
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