इक सपना देखा था;
रात के अँधेरे में
जैसे कोई अपना रूठा था.
वो जो ऐसे
हाथ में आके फ़िसल गया;
जाना-पहचाना ही था,
फिर-भी जाने कैसे बदल गया?
नमकीन पानी आँखों से होके
जब मन में बहने लगे;
मीठी दरिया थी अन्दर कहीं
सब इस समन्दर में खोने लगे.
अब तो हलक में इतना
कड़वापन-सा लगता है;
झूठ के चाशनी का स्वाद भी
अब फ़ीका-सा लगता है.
जीवन कड़वी सच्चाईयों की बंद
संदूक जैसे बन गई है;
यह मुस्कराहट भी ताले की
जगह जबरन बैठ गई है.
संदूक जैसे बन गई है;
यह मुस्कराहट भी ताले की
जगह जबरन बैठ गई है.
हाँ! सुबह-सवेरे ही
इक सपना टूटा है;
रात के अँधेरे में जैसे
कोई अपना छूटा है.....
2 comments:
झूठ के चाशनी का स्वाद भी
अब फ़ीका-सा लगता है...
क्या बात है, बहुत ख़ूब!
bahut khoobsoorat kavita
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