लेने लगी हूँ;
सोचती हूँ, क्यूँ तुम्हें इस तरह
याद करने में लगी हुई हूँ मैं?
तुम चले गए हो, तो इन
सबको भी चले जाना चाहिए;
क्यूँ अब भी इन पलों से, भींगी पलकों व
तुम्हारी बातों से सजा करती हूँ मैं?
यथार्थ में तो तुम मेरे लिए
कभी थे ही नहीं;
फिर भी तुम्हारे साथ जैसे जी रही हूँ मैं,
ये कैसे सपने में खोई हुई हूँ मैं?
हाँ, अब इस दरवाजे को बंद कर देना चाहिए,
जिससे होके तुम कभी आये थे;
तुम्हें यकीं न हो शायद, मगर जिस पल से तुम चले गए,
तबसे इसकी कुण्डी बंद करने में लगी हुई हूँ मैं.
फिर क्यूँ बंद नहीं होता? तो याद आता है कि
तुम्हारे मोज़े का एक जोड़ा व एकाध कपडे,
जो तुमने धोने के लिए पानी में भिगोये थे;
मुझे उनको धोकर सुखाना है पहले,
शायद इसी सोच में अब तक पड़ी हूँ मैं.
10 comments:
bahut hi sundar rachna hai .
हिन्दीकुंज
ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है
VANDANA JI BAHUT BAHUT HI SUNDER KAVITA HAI MAINE TO JIS DIN PAEHLI BAR BLOG DEKHA THA FAN HO GAYA HOON AAPKA...
आशुतोष जी और संजय जी कविता को सराहने के लिए धन्यवाद.
संजय जी मैं तो अपने बीते पलों से कुछ पल चुरा कर उन्हें शब्दों का आकार दे देती हूँ. बस इतना ही करती हूँ... आपको अच्छा लगा तो ये जानकर मुझे और भी ख़ुशी होती है.
दरीचा जब जबरन बन्द किया जाता है तो ठीक से बन्द नहीं होती. बेहतर है खुला ही रहे. स्मृतियो का आवागमन स्वयं के हाथ मे कहाँ है.
बहुत खूबसूरत आकर देती हो वंदना .
एहसासों को शब्दों के माध्यम से व्यक्त करना आसान काम नहीं
"तो याद आता है कि
तुम्हारे मोज़े का एक जोड़ा व एकाध कपडे,
जो तुमने धोने के लिए पानी में भिगोये थे;
मुझे उनको धोकर सुखाना है पहले,
शायद इसी सोच में अब तक पड़ी हूँ मैं."
वाह, बहुत खूब..
कविता बहुत सुन्दर है ... कहीं से होता हुआ आपके ब्लॉग तक पहुंचा हूँ । आपकी कवितायेँ पढ़कर अच्छा लगा । आपकी रचनाओं में ताजगी है ।
वर्मा जी आपकी बातों से मैं सहमत हूँ, मगर ये मन है ना अपनी मर्ज़ी ही चलाता है जब और कहीं अपनी मर्ज़ी नहीं चलती है तब तो और भी.....
अनिल, पंकज और इन्द्राणी जी का भी बहुत बहुत शुक्रिया... ख़ूबसूरत टिप्पणी देने के लिए..... यही मेरे प्रेरणास्रोत है लिखने के लिए.
बहुत खूबसूरत आकर देती हो वंदना .
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