मुझे हिंदी फिल्मों का बहुत शौक है, खासकर कि वो देव आनंद, दिलीप कुमार, प्रदीप कुमार, मधुबाला, गीता दत्त के जमाने से हो तो और भी. मगर अब जब कोई मेरी पसंदीदा फिल्म के बारे में पूछता है तो बस वही याद आता है- “लव आज कल”................
किसी ने अभी तक पूछा तो नहीं कि यही फिल्म क्यूँ? मगर कोई पूछे, तो सोचती हूँ उसे क्या जवाब दूँगी? वैसे इस फिल्म तक का सफर कहने को तो ज्यादा लंबा नहीं था, वो हमारी चौथी मुलाक़ात थी. फिर भी क्यूँ मुझे पहले से दूसरी, दूसरी से तीसरी और तीसरी से चौथी तक जाने में अब भी इतना समय लगता है?
ऑरकुट में मुझे ढूँढने में उसने उतना समय नहीं लगाया था जितना कि मुझे पूछने में. मेरे हॉस्टल पहुँचते ही वह मुझे फिर से मिल गया मेरे लैपटॉप के स्क्रीन पर, अपने ड्रैकुला वाले दाँतों से साथ. मगर मैं यह कैसे जताती कि तुम्हारी ये हँसी मुझे अच्छी लगने लगी है. जो कुछ कह पाई तो यही कि “कैसे हो? क्या कर रहे हो? तुम्हारे फोटो अच्छे है.” इतने में अगर वह मुझे समझ पाता तो..... तो भी मुझे नहीं समझ में आता कि क्या होता फिर?
शुरूआती दिनों में उससे सिर्फ औपचारिक बातें ही होती थी. कभी-कभार मजाक भी. पर जो भी होती थी, उसमें दोनों का ध्यान जरूर रहता था. कुछ ही दिनों बाद उसका जन्मदिन था, मुझे जहाँ तक याद है उसे जन्मदिन की शुभकामनाएं देने के बाद ही हमारी बातचीत और भी बढ़नी शुरू हो गई थी. उसी दिन उसने मुझे ऑरकुट से हट के जी-टॉक पर बात करने के लिए निमंत्रण दिया, जिसे मैंने बड़े मन से स्वीकार भी कर लिया. उस दिन वह अपने घर पर ही था, मगर अकेला. उसका घर पुरुलिया के पास था. उसके माता-पिता सिंगापूर में अपनी बेटी और दामाद के पास घूमने गए थे. वह वाशिंग मशीन पर अपने कपड़े धोते-धोते मुझसे चैट कर रहा था. उस दिन इधर-उधर की ही बातें हो रही थी, कि अचानक से पता नहीं किस बात के ले के वह थोड़ा परेशान हो गया. मुझे समझ में तो नहीं आया, पर इतना तो समझ ही गई कि मेरी कुछ बातों को उसने अपने ऊपर ले लिया है. मेरी ये मीन राशि भी को भी उसी वक्त काम आना था, उसकी परेशानी को समझने की कोशिश करने लगी. बातों-ही बातों में उसने बताया कि उसकी करीब दो-ढाई साल की एंगेजमेंट जो कि शादी में भी बदल जाती, उसी साल के फ़रवरी महीने में, टूट गयी है और वह इस वाकये से काफी अवसादग्रस्त भी मालूम पड़ रहा था. मुझे फिर समझ में नहीं आया कि अब उसे मैं क्या कहूँ? बस इतना समझ में आया कि मुझे और करीब नहीं आना चाहिए. “मुझे लगता है तुम मुझे अभी इतना भी नहीं जानते जिससे तुम्हें इतना कुछ कहना चाहिए. और अगर अभी से तुम अपनी भावनाओं की साझेदारी करोगे तो जो भी होगा, उसकी बुनियाद सही नहीं होगी. पहले तुम मुझे अच्छी तरह से जान लो. और अपने उलझनों से खुद ही निकलो तो अच्छा होगा. अपनी-अपनी परेशानियों से परे होके हम अच्छे दोस्त बने रहे तो ज्यादा अच्छा रहेगा.”- मैं इतना कह के चुप हो गई. “ हाँ, तुम ठीक कहती हो. शायद मैं अपने अकेलेपन से छुटकारा पाना चाहता हूँ, और इसलिए तुम मिली तो बस मन से निकल आया. वैसे तो मैं किसी से कहता नहीं हूँ. पता नहीं क्यूँ मैं तुमसे ये सब कह रहा हूँ?”—उसका यह कहना भी मैं समझ रही थी कि क्यूँ कह रहा है. उस दिन हमने बात वहीँ खतम कर दी.
उसके बाद भी हमारी बातचीत होती रही. अब वो कभी-कभी मुझे फोन से मैसेज भी भेज दिया करता था, जिसका प्रतिउत्तर मैं अवश्य दिया करती थी. दिनभर शिप में व्यस्त रहने के बावजूद भी वह मुझे काफी मैसेज किया करता था जैसे कि “क्या कर रही हो? गुड मोर्निंग!, लैब में हो क्या? मैसेज क्यूँ नही किया? कुछ जोक्स,” वगैरह-वगैरह. कभी-कभी उसके मैसेज बहुत मजेदार भी हुआ करते थे जैसे कि “डोंट आओ, उल्लू वॉट करता?”. एक दिन शिप से उसने जून की भरी दोपहरी में मैसेज किया—“ यहाँ इतनी गर्मी और उमस है कि मैं उबल रहा हूँ. उल्लू मैं क्या करूँ, लगता है मोमो बन गया हूँ.” और इस तरह उसने अपना नामकरण स्वयं ही कर लिया. ‘मोमो’ यह नाम मेरे मोबाइल में अब भी है, और उसका तो बन ही चुका था. मुझे भी पता नहीं कैसे और कब उसने ‘उल्लू’ बुलाना शुरू कर दिया. और मैं मान भी गई खुद को उल्लू. उसके बाद हमने कभी एक-दूसरे को और किसी नाम से पुकारा ही नहीं.
अब हम एक-दूसरे खुलने लगे थे. कोई पर्दा नहीं, जो मन में आया बोल देने का. अब तो घंटे-भर भी चुप नहीं रहते थे. और उसे तो गुस्सा आता था, जब मैं लैब में काम करते वक्त उसके एस एम एस का जवाब नहीं देती थी. “तुम्हें बता देना चाहिए था कि तुम्हारे पास मेरे मैसेज का रिप्लाई देने तक का टाइम नहीं है. मोमो इज गुस्सा.”—उसकी इन सब बातों पर मैं हँस देती थी कि यह २९ साल का ही है ना.
एक-दूसरे के दुःख के अलावे हम बाकी सब कुछ बताते थे, जैसे कि किसी पर खुन्नस, गुस्सा, मजाक, कुछ अनहोनी, अपने सपने, आस-पास के लोगों के बारे में, सब कुछ. कुछ दिनों से मैं अपने काम को लेके परेशान थी. मुझे जब खुद से कोफ़्त होती थी तो मैं बच्चों के पार्क में जाकर उनके लिए बनाये गए झूले में घंटों बैठे रहती थी या किसी अनजान सड़क पर चलते रहती थी तब तक जब तक कि पाँव थक न जाएँ. एक दिन यूँ-ही अजीब मन से उसे फोन कर के कहा कि क्या वह शाम को फुर्सत में है.
उसके कारण पूछने पर मैंने कहा—“बस यूँ ही हावड़ा ब्रिज पर खड़े होकर हवा से रु-ब-रु होने का मन कर रहा है.”
“अजीब लड़की हो तुम. इस वक्त तुम आओगी तो फिर वापस जाते-जाते रात हो जायेगी. फिर कभी समय निकाल कर आना. आज ऐसे इस तरह से आना ठीक नहीं.”
उसके इतना कहने पर मुझे गुस्सा आ गया-- “आना है तो आओ, नहीं तो मत आओ. मेरे को जाना है तो मैं अकेली ही चली जाऊँगी. मैं सिर्फ पूछ रही हूँ.”
और मैं चली आई. शाम के चार बज गए थे. वह भी दौड़ते-भागते आया था. भूखे-प्यासे तो थे ही, सो पहले फ़ूड प्लाज़ा में जाकर पेट में कुछ डाला. फिर उसे मैंने कहा- “ चलो ब्रिज घूमने!” मेरे साथ वह पीछे-पीछे बाहर निकल आया. जब मैंने उसे पैदल चलने को कहा तो उसने कहा—“ मैंने अपनी अब तक की जिंदगी में कभी भी यह करने को सोचा भी नहीं कि हावड़ा ब्रिज में पैदल चलूँगा. कितनी बार आया हूँ, मगर टैक्सी-गाड़ी लेके जितनी जल्दी हो सके यहाँ से बस किसी तरह पार होने का ही सोचा हूँ.”
“कभी मेरी तरह भी जीना सीख लो, मुझे पता है अभी तुम्हें यह बचकाना हरकतें जैसी लग रही होगी. मगर वहाँ पहुँच कर फिर से मुझे कहना कि कैसा लगा?”— इतना कहने के बाद हमदोनों सड़क पार करने के लिए देखने लगे. मुझे तो यह भी नहीं पता था कि कहाँ से हम चलना शुरू करें? बस इधर-उधर करके किसी तरह हमें सही रास्ता दीख ही गया.
ब्रिज के किनारे कचरों का ढेर लगा था, उसे पार किया तो छोटी-सी सब्जी-मंडी दिखने लगी, सड़क के किनारे. कुछ सब्जियों के नाम मुझे तो पता भी नहीं थे, कौतुहलवश मैं सब्जीवाले से उनके नाम, बनाने की विधि वगैरह पूछने लगी तो मुझे ऐसा पूछते देख अमृत बनाम मोमो हँसने लगा था, शायद मेरी पागलपनी पर. कुछ और ऊपर चढ़े तो १०-१० रुपये वाले खिलौने मिलने लगे. ब्रिज के किनारे दोनों तरफ से लोग आ-जा रहे थे. कभी –कभी तो हमें लग रहा था कि हम भीड़ की बदौलत ही आगे बढ़ पा रहे थे. कभी अचानक से कोई हेलिकॉप्टर मेरे पैरों के पास गिर जाता तो कभी सामने से ढोते हुए आ रहे टोकरियों से उसका सिर टकरा जाता था. दो-चार बच्चे आपस में लड़ते हुए, तो पुलिसकर्मियों की पैनी नज़रें हमदोनों को भेदती हुई चली जाती थी. कुल मिला के उस २० मिनट के सफर को हमने काफी अच्छे से जिया.
ब्रिज के बीचोंबीच पहुँच के मैं एक साफ़-सी जगह पर अपने हाथ टिका के खड़ी हो गई. वो भी बगल में आकर मेरे साथ ब्रिज के नीचे बहते पानी को देखने लगा.
मैंने पूछा—“पता है, नीचे बहते पानी को देखकर मुझे कैसा लग रहा है?”
“हम्म..... जैसे कि आसमान के बादल नीचे जमीन पर उमड़-घुमड़ रहे हो.”—वह अपने ही ख्यालों में कुछ सोचता हुआ बडबडाया.
मैं उसे इक पल को आश्चर्य से एकटक देखती रह गई. “उफ्फ्फ....... हमारे ख़याल इतने क्यूँ मिलने-जुलने लगे है?”—मैं मन-ही-मन झुंझला गई.
थोड़ी देर तक दूर जहाजों को पानी में तैरते-रुकते देखते रहने के बाद मैंने उसकी ओर देख के कहा—“ हाँ तो अब बताओ, कैसा लग रहा है यहाँ पर आकर.”
वह मेरी तरफ मुस्कुराते हुए कहा—“सोच रहा हूँ कि मैंने कभी ऐसा क्यूँ नहीं सोचा?”
“चलो अभी और भी बहुत कुछ सोचने को बाकी है.”- और मैंने उसे वापस चलने को कहा.
पुल के नीचे आकर मैं फेरी वाले के तरफ बढ़ दी और वह भी मेरे साथ-साथ चलने लगा. “दो बाबुघाट के लिए!”—मैंने १० रुपये का नोट टिकट काउंटर में अंदर की ओर खिसकाया. टिकट लेके उसे कहा—“चलो अब फेरी में घुमेगे.” फेरी के लिए काफी देर तक इंतज़ार करते रहने के बीच उसने मुझे शिप के बारे में काफी-कुछ बताया. फिर थोड़ी देर में हम बाबूघाट भी पहुँच गए. उस बीच वह मुझे नदी किनारे बने मकानों, पार्कों, होटल वगैरह के बारे में बताने लगा और उनकी खासियत भी. वहाँ से एसप्लानेड तक भी मैंने उसे पैदल चलने को कहा. उसे वह रास्ता उस वक्त तक तो पता भी नहीं था. न्यू मार्केट में आके हम सड़क किनारे लगे दुकानों को पार करते हुए पार्क स्ट्रीट की तरफ बढ़ने लगे.
“एक रेस्टोरेंट है यहाँ, एक बार मेरा एक फ्रेंड मुझे लाया था यहाँ, क्या तुम वहाँ चलना पसंद करोगी?”—उसे अचानक कुछ याद आ गया था. मेरे हामी भरने के बाद हमदोनों ने दिशा बदल ली अपने गंतव्य की ओर. थोड़ी देर में हम उस रेस्टोरेंट के सामने खड़े थे.
उसने मुझसे पूछा—“अभी ही लंच किया है, क्या तुम डिनर करोगी इतनी जल्दी या कुछ और?” उस वक्त शाम के सात बज रहे थे.
“नहीं कुछ हल्का-फुल्का चलेगा. अभी और भारी खाने की इच्छा नहीं है.”
“ओके, मैं तो एक बियर लूँगा और तुम?” – मुझे तंग करने के मूड से उसने मुझे तिरछी नज़रों से मेरी प्रतिक्रिया देखनी चाही.
“ह्म्म्म..... मैन्ह्ह्ह्ह............ भी वही लूँगी जोह्ह्ह्ह्ह....... तुम लोगे.”—मैंने धीरे से उसकी तरफ नहीं देखते हुए कहा.
“सच्ची.........!!!!!”—उसे अचानक से करंट लग गया हो जैसे.
“हाँ.....” – मेरे इतना कहने पर उसने कहा – “देखते है तुमको”.
फिर हम रेस्टोरेंट के अंदर चले गए. एक ३ कुर्सी वाले टेबल पर हम दोनों बैठ गए. उसने ही आर्डर किया क्यूँकि मुझे हमेशा की तरह मेनू देखने से सख्त परहेज था.
“सामने कोई सुंदरी बैठी हैं ना? आराम से देख लो. मगर पिटने वाली नौबत मत लाना.”
मेरी इस बात पर वह शरमा गया कि उसकी चोरी पकड़ी गई--“तुम एक नंबर की बेशरम हो!”
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“हाँ अगर सब कुछ समझते हुए भी नहीं समझना बेशरमीपन है तो वो मैं हूँ!”—मेरे इस बात को उसने काटने की कोशिश नहीं की.
“तुम्हें पता है वह लड़की उसकी बीवी नहीं , उसकी सेक्रेटरी या उसी के ऑफिस की कोई होगी.”
उसके यह कहने पर मैंने कहा--“हम्म.... काफी रिसर्च किये हो, गुड गुड. मगर फिलहाल तुम सिर्फ अपनी ओर ध्यान दो.”
थोड़ी देर तक जैसे मेरी ही बातों में डूब गया हो, उसने कांच के गिलास को हाथ से गोल-गोल घुमाते हुए जैसे खुद से कहा—“ क्या सोचूं अपने बारे में?”
“बहुत कुछ!, बहुत कुछ अच्छी बातें सबके जीवन में होती है. उन्हें सोचो और अगर मन करे तो मुझसे भी कह सकते हो फिलहाल के लिए!.”—ऐसा मैंने उसके उदास से चेहरे को देखते हुए कहा.
“क्या सुनना चाहती हो मेरे बारे में?”- वह फिर से उसी उदासी में डूबने की तैयारी करने लगा.
“वही जिसे सुन के मुझे लगे कि मैंने अमृत को अमृत की तरह जाना है, न कि दूसरों के बनाए हुए अमृत से परिचित होना है. तुम्हारी परेशानियों से हट कर भी तुम्हारी एक पहचान है, एक समय रहा होगा जिसमे तुम्हारा नाम लिखा गया होगा. उन अच्छे पलों को याद करके अपने बारे में बताओ.” – पता नहीं कैसे मैंने उससे ये पूछ डाला. थोड़ी देर तक वह मेरी आँखों में देखता ही रह गया कि किसी और ने अब तक ये क्यूँ नहीं पूछा.
थोड़ी देर में वेटर ने बियर और और एक अजीब-सी चीज़ परोस दी. “इसमें क्या है?”—मैं सामिष तो थी मगर उसमे भी मैंने अपने लिए कई परहेज बना रखे थे. सो मैंने उससे पूछ ही डाला.
“चिकन ही है. चिंता मत करो.”- उसके इतना कहने पर मैंने राहत की साँस ली.
बियर पीते वक्त वह मुझे ही देख रहा था कि सामनेवाली लड़की पर कितना भरोसा किया जा सके. जब उसे भरोसा हो गया तो उसने कहना शुरू किया—“तुम तो जानती हो मेरे पढाई लिखाई के बारे में. इसके अलावे मैंने सिर्फ टाइम पास किया है. मेरी लाइफ में बहुत लोग आये, रहे और किसी-न-किसी कारण से चले भी गए. जैसे कि नेवी के लोगों के बारे में एक आम राय होती है, वैसे ही मैं भी हूँ. सिर्फ नेवी में आने के बाद से नहीं. शायद मैं बचपन से ही ऐसा हूँ. कई लड़कियां आई और गयी, मगर जब भी मैंने अपने आपको लाइफ में सेटल करना चाहा. मैं नाकाम ही रहा.”
“क्या तुमने फ्लर्टिंग, प्यार के अलावे और कुछ नहीं किया?”
“सच बोलूं तो सही में इसके सिवा कुछ नहीं किया.”- और वह खिलखिला के हँस दिया.
“अच्छा तो वही सही, शुरू से बताओ किन-किन से मिले, उनके साथ क्या अच्छा लगा, और फिर कैसे उस समय से खुद को बाहर निकाला.. वगैरह वगैरह.” फिर उसने एक-एक करके अपने सारी गर्लफ्रेंड्स के बारे में बताना शुरू किया. कैसे वो उनको पटाने करने के लिए गिटार पर धुन सीखा करता था, रात-रात भर प्लेटफोर्म में बिताया पड़ा था, कैसे उसके लिए कोई रोती थी, कभी किसी के माता-पिता से झगड़ा कर लेने की नौबत भी आई थी, शादी के लिए भागने तक की प्लान कर लेना, अपने लिए दूसरे का ब्रेक-अप करवा देना, पड़ोस की लड़कियों से हॉस्पिटल की नर्स तक को एक दिन में पटा लेना-- सही में उसे मानना पड़ेगा. इतना कहते-कहते वह उस लड़की की बात पर भी आ गया जिसे वह दुर्गा पूजा के पंडाल पर मिला था और २ साल के अफेयर के बाद शादी की तैयारी भी शुरू हो गई थी. बस एक महीने पहले ही उसने शादी तोड़ दी, क्यूंकि कई दिनों से वह लड़की अपने साथी को लेके शादी के लिए तैयार नहीं हो रही थी. मामला सीधा-सादा लव-त्रिकोण का था. वह उसे बहुत चाहता भी था, ऐसा मुझे लगा.
यहीं पर आकर वह रुक गया जैसे कि उसकी कहानी खतम हो गई. “अरे यह सब तो होता रहता है. और शायद इसी में सबकी भलाई हो. या शायद तुमदोनों ने एक दूसरे को ठीक से समझा नहीं होगा. और वह सिर्फ २२ साल की थी, उम्र के हिसाब से सोच में काफी फर्क हो जाता है. और शायद यह भी वजह रही होगी.”—इतना कह कर मैं आगे और कुछ नहीं बोल पाई. उसकी आँखें नम थी उस वक्त. और मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि आगे कैसे बात को बढ़ाया जाना चाहिए?
“तुम अपनी बताओ..... तुम्हारा कोई बॉयफ्रेंड है?”- मेरी तरफ देखते हुए उसने बियर को खतम किया.
“मैं .....मेरी लाइफ तुम्हारी तरह तो नहीं है बिलकुल भी, मुझे पढाई के अलावे शायद और कुछ ठीक से कभी करने आया ही नहीं.... मास्टर्स में एक अच्छा दोस्त हुआ करता था जिसे मैं बेइंतहा पसंद भी करती थी, मगर उसने कॉलेज से निकलने के बाद किसी और से शादी कर ली. दुःख इस बात का है कि उसे किसी और से ही शादी करनी थी तो मुझे भ्रम में नहीं रखना चाहिए था. गुस्सा तो बहुत है उस पर जो कि सिर्फ अंदर ही रहेगा, कभी निकलेगा नहीं. फिलहाल अपने एकाकीपन के साथ जिंदगी को मजे से जी रही हूँ. जो उन दो सालों में खो चुकी थी, उन्हें वापस फिर से ढूँढने में लगी हूँ. बस यही है मेरी कहानी.”—बियर का थोड़ा-थोड़ा असर मुझे कर रहा था, सो मैंने अपनी जुबां को काबू में रखा था. और मैं चुप हो गई. वह मेरी तरफ देख कर मुस्कुराया-सा, बिल चुका कर कहा-“चलो अब बाहर चलते है.”
मेरी चाल पर मुझे थोड़ा शक होने लगा था. सो मैंने उसका हाथ पकड़ कर सीधे चलने की कोशिश करने लगी. मन तो हल्का लग ही रहा था कि अचानक से उसके फोन पर कॉल आता है. मैं एक तरफ हो के एक रेलिंग पर थोड़ा ऊपर चढ़ कर खड़ी हो गई और उसे दिखा के हाथों को पंखों के जैसे हिलाने लगी. वह मुझे देख मुस्कुराया और मेरी बाँह पकड़ कर मुझे आगे चलने को कहा. बस पकड़ कर हम स्टेशन चले आये. मेरी ट्रेन १० मिनट में छूटने वाली ही थी. दौड़ते-भागते मैं महिला कोच के पास आके रुक गई. तब तक मेरा सारा नशा उतर चुका था. मुझे चलती ट्रेन में चढ़ने से बड़ा डर लगता है, सो मैंने उससे गाड़ी के सिग्नल होने के पहले ही उसके आने और साथ देने के लिए धन्यवाद कहा.
सिर्फ ३० सेकेंड ही बचे थे ट्रेन के चलने में, जब उसने धीरे–से मेरे कान के पास आकर थोड़ा झुक कर कहा--“तुम्हारे साथ आज की शाम बिताना मुझे भी बहुत अच्छा लगा. मुझे इतना अच्छा समय देने के लिए, हावड़ा ब्रिज, फेरी सबके लिए और सबसे ज्यादा मुझे सुनने के लिए तहे दिल से शुक्रिया कहना चाहूँगा.” इतना कह कर उसने मुझे एक ओर से आलिंगन में ले लिया. मुझे कुछ असहज-सा लगा और मैं शरमा कर आँखें नीचे कर एक तरफ हो गई. वह भी मेरी इस असहजता पर हँस दिया. मैं ट्रेन में चढ़ गई और उसे हाथ हिलाते हुए उस वक्त के लिए आखिरी बार देखा और अपने सीट पर आकर पसर गई. अपनी दूसरी मुलाकात को मैं अब भी अपनी बंद आँखों से महसूस कर रही थी.