रोज-रोज की कोशिश कि
आज तो जल्दी सो जाऊँगी.
जिस तरह सब बदल जाते है
तो मैं भी बदल जाऊँगी.
ऐसे कितने ही खुद से किये वादों से
मेरी लाचारगी की अलमारी भरी हुई है.
तुम्हें भुलाने के लिए कई कसमें
तो अब भी अजन्मी ही रह गई है.
तुम इक दिन आना जरूर
अपना ‘कुछ रह गया’ सामान
हो सके तो लेते जाना;
मेरे चेहरे में हर रात एक लकीर
जनमती है, अपनी हथेली में
अपना नाम समेटते हुए जाना.
एक कसमसाहट है, नींद के लिए नहीं,
तुम्हारे अब भी होने के अहसास से;
मन कहता है सर्जरी करवा लूँ,
अलग हो जाऊँ इस दिलोदिमाग से.
मेरे चाहने न चाहने पर भी
जब सुबह हो कर ही रहती है,
तो क्यूँ मेरे कमरे की घड़ी की सुईयाँ
अब भी तुझ पर ही टिकी रहती है?
जागने की इच्छा भी बलवती होने लगेगी,
तुम बस पल के हजारवें हिस्से में भी न आना;
‘तुम’-रहित जिंदगी चाहिये, नींद अजूबा न हो जिसमें,
हो गर अविश्वास तो बस तुम्हारा याद आ जाना.
10 comments:
आपके भाव स्पष्ट और शब्द संसार विस्तृत है..
आपकी कविता में प्रयुक्त बिम्ब आकर्षक लगे...
आप सचमुच बहुत अच्छा लिखती हैं...
बधाई स्वीकार करें...
सुन्दर कविता ... कहीं कहीं गुलज़ार साब के "मेरा कुछ सामान" वाली झलकियाँ दिखी ... पर प्रयोग अलग तरह का है ..
kya kahu ... kavita padhkar man kahin kho gaya hai .. bahut hi bhaavpoorn rachna .
vijay
kavitao ke man se ...
pls visit my blog - poemsofvijay.blogspot.com
एक कसमसाहट है, नींद के लिए नहीं,
तुम्हारे अब भी होने के अहसास से;
मन कहता है सर्जरी करवा लूँ,
अलग हो जाऊँ इस दिलोदिमाग से.
आज के वैज्ञानिक युग की सोच ...अच्छी लगी
गज़ब की प्रस्तुति है एक अलग सोच को दर्शाती हुयी।
दिल को छू लेने वाली प्रस्तुति!
पर मुझे तो नहीं लगता कि इस "तुम" बिन कोई ज़िन्दगी होती है.कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में इससे वास्ता पड़ना ही है-हम चाहें न चाहें.
किसी को भुलाने के लिए दिमाग की सर्जरी.
नयापन है जी. काश ये संभव होता.
अदा जी, इन्द्रानिल जी, विजय जी,संगीता जी, वंदना जी, यशवन्त जी तथा कुसुमेश जी आपका सबका आभार पसंद करने के लिए.
यशवन्त जी, ये हम चाहे न चाहे के चक्कर में ही असल जिंदगी फंसी हुई है. आपका कहना भी सही है.
कुछ तो है इस कविता में, जो मन को छू गयी।
"माफ़ी"--बहुत दिनों से आपकी पोस्ट न पढ पाने के लिए ...
संजय जी माफ़ी काहे का? हम भी गायब ही थे कई दिनों से ब्लॉग जगत से. बस इसी तरह आते रहिएगा.
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