अहसासों को काट कर
फेंक देना ही है जिंदगी,
तो मैं शायद बरसों पुराना
कोई गुलाब का पौधा हूँ.
जिसमें नए अहसासों के
पनपने से पहले
पुरानी डालियों की छँटाई
होनी जरूरी होती है.
मुझमें सपने अब भी है
यह तसल्ली कटने के बाद
बने घाव से फिर-से उगते
पत्तों में अब भी दीखती है.
मेरे काँटों से किसी को भी
चुभन अब नहीं होती है,
और हर साल खिलने की
मैं हिम्मत कर ही लेती हूँ,
मेरे रंगों की तारीफ़ अब भी
कोई न कोई कर तो लेता है,
और जिसे जी में चाहे तो मुझे
मेरी डाली से तोड़ भी लेता है.
मेरी महक में किसी को भी
अकेलापन तो नहीं लगता होगा,
पर मेरे खिले होने का मतलब
क्या किसी ने सोचा भी होगा?
जब मेरे पत्ते-पंखुड़ियाँ, हरे डाल भी
रिश्तों की नमी को कम होता पाते है,
बिना कहे वो भी पता नहीं कैसे
पीले और पीले पड़ते जाते है.
मैं जानती हूँ कि इसी तरह
मुझे हर साल कटना-छंटना है,
जब तक है हिम्मत की उर्वरकता,
मुझे बस खिलते रहना है.
मगर जो विषैले रिश्तों के बीज
मेरे मन के मिट्टी में दबे रह गए है,
उससे मेरी जड़ें कब तक बचेगी?
सहनशीलता के कवच भी तो जवाब दे गए है.
28 comments:
वन्दना जी
नमस्कार !
... आपकी कविता पढ़कर मन अभिभूत हो गया ,
जिसमें नए अहसासों केपनपने से पहलेपुरानी डालियों की छँटाईहोनी जरूरी होती है.
ये लाइन पढ़ कर तो बरबस ही चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई.
मुझमें सपने अब भी है
यह तसल्ली कटने के बाद
बने घाव से फिर-से उगते
पत्तों में अब भी दीखती है.
मेरे काँटों से किसी को भी
चुभन अब नहीं होती है,
और हर साल खिलने की
मैं हिम्मत कर ही लेती हूँ,
jinke kaante chubhan nahin dete , we hi har baar khilne ka hausla rakhte hain
मुझमें सपने अब भी है
यह तसल्ली कटने के बाद
बने घाव से फिर-से उगते
पत्तों में अब भी दीखती है.
beautiful...!
poori nazm hi bohot acchi hai, har thought clear hai, lajawaab hai....yunhi khilte raho.... :) :) :)
वंदना जी अच्छी और सुंदर रचना
मगर जो विषैले रिश्तों के बीज
मेरे मन के मिट्टी में दबे रह गए है,
उससे मेरी जड़ें कब तक बचेगी?
सहनशीलता के कवच भी जवाब दे गए है.
ओह! गुलाब के पौधे के माध्यम से ज़िन्दगी से रु-ब-रु करवा दिया।
Behad alag tereh ki upma jo ab tak sirf rachna ji ki kavota me dekhne ko milti thi..ab aapki kavita me bhi dikhne lagi h..aur yehi visheshta h shayad aapki kavitaaon ki paripakvata ki .. :)
जिसमें नए अहसासों के
पनपने से पहले
पुरानी डालियों की छँटाई
होनी जरूरी होती है
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ ...छंटाई करना ज़रूरी हो जाता है ...
मगर जो विषैले रिश्तों के बीज
मेरे मन के मिट्टी में दबे रह गए है,
उससे मेरी जड़ें कब तक बचेगी?
सहनशीलता के कवच भी जवाब दे गए है
यही एक ऐसा प्रश्न जिसका जवाब नहीं मिलता ..पर वक्त के साथ ऐसे बीज स्वं ही खत्म हो जाते हैं ..
अच्छी प्रस्तुति ..
मेरे रंगों की तारीफ़ अब भी
कोई न कोई कर तो लेता है,
और जिसे जी में चाहे तो मुझे
मेरी डाली से तोड़ भी लेता है.
behtareen prastuti.baar baar padhee.
बहुत सुन्दर रचना!!
गुलाबों के माध्यम से अभिव्यक्ति बहुत सुन्दर बन पड़ी है
अति सुन्दर|
आपका ब्लाग का प्रयास अच्छा है मैं आपके ब्लाग को फालो कर रहा हूँ ।
मैं जानती हूँ कि इसी तरह
मुझे हर साल कटना-छंटना है,
जब तक है हिम्मत की उर्वरकता,
मुझे बस खिलते रहना है.
गुलाब को विम्ब बना कर बहुत ही सुन्दर जीवन दर्शन का चित्रण..बहुत अहसास और भावना पूर्ण प्रस्तुति..
वंदना जी आपकी ये कविता बहुत ही परिपक्व और भावपूर्ण है। गुलाब के पौधे का बिल्कुल नए प्रतीक के रूप में प्रयोग किया है आपने। क्या बात है!
इस पूरे हफ्ते में मैने जितनी भी ब्लॉग पोस्टेँ पढ़ी हैं निस्संदेह ये उनमे श्रेष्ठ है (Post of the week)
मैं इसे 10 में 8 अंक दूँगा।
मेरे काँटों से किसी को भी
चुभन अब नहीं होती है,
और हर साल खिलने की
मैं हिम्मत कर ही लेती हूँ,
बहुत खूबसूरत अंदाज़ में कविता लिखी है आपने।...शुभकामनाएं।
@ संजय जी: बरबस चेहरे पर मुस्कान किस बात को याद करके आई? ;-)
@रश्मि जी: आपकी टिप्पणी हमेशा कुछ सन्देश देती है मुझको. आभारी आपकी, जो इतना उत्साह दिलाते रहती है.
@सांझ : शुक्रिया दोस्त!
@ अमरजीत जी , वन्दना जी धन्यवाद आपका!
@ मोनाली: तुम्हे भी धन्यवाद जिसके चलते मुझे एक और सुन्दर ब्लॉग के बारे में पता चला.
@ संगीता जी, पसंद करने के लिए शुक्रिया. आप सही कहती है, और यह बात मैं भी मानती हु कि वक्त सब चीजों का इलाज होता है.
@ unkavi ji, परमजीत जी, कुसुमेश जी: धन्यवाद!
@ राजपुरोहित जी : पसंद व प्रयास को और बढ़ावा देने के लिए तहे दिल से शुक्रिया.
@ कैलाश जी, महेंद्र जी: आपके कमेंट्स प्रोत्साहित करते रहते है, धन्यवाद!
@ सोमेश जी; आपने तो चने के झाड़ में चढा दिया है. ८ पाकर तो मन बल्ले बल्ले हो रहा है. :-)
पढ़िये झूठ का भंडाफोड़
BHANDAFODU.BLOGSPOT.COM
मन सुंदर होता है तो भाव भी सुंदर होते है। आपकी अभिव्यक्ति अच्छी लगी। धन्यवाद।
जब मेरे पत्ते-पंखुड़ियाँ, हरे डाल भी
रिश्तों की नमी को कम होता पाते है,
बिना कहे वो भी पता नहीं कैसे
पीले और पीले पड़ते जाते है.
...
aur phir hoti hai khamoshi, sirf khamoshi
बहुत अहसास और भावना पूर्ण प्रस्तुति|
बहुत खूब ... गुलाब के माध्यम से इंसानी रिश्तों के बारे में बहुत कुछ कह दिया आपने ....
भई वाह सुभानअल्लाह। यही तो जीवन है। पर अमर बेल नहीं हैं हम। विषेले बीजों का कूछ तो असर पड़ ही जाता है। पर बात वही है साधु और केकड़े की कहानी की तरह हम अपना स्वभाव नही छोड़ते। हर हालत में आप खिलने की ताकत रखती हैं. जब तक हिम्मत है तब तक तो सही। चलिए ये भी कम नहीं। वैसे एक बात कहूं एक पाठक की हैसियत से। सारी कविता दमदार है..अंतिम लाइन एकदम आखिर में कुछ अटक सी गई। नहीं क्या?
क्या हो गया है यार?
दर्द झलक रहा है :)
बहुत प्यारी रचना ...शुभकामनायें !
निराली सोच के माध्यम से एक उच्च स्तरीय प्रस्तुति
विशेष:
"मगर जो विषैले रिश्तों के बीज मेरे मन के मिट्टी में दबे रह गए है,उससे मेरी जड़ें कब तक बचेगी?सहनशीलता के कवच भी जवाब दे गए है"
- हार्दिक शुभकामनाएं
@ प्रेम सरोवर जी: बहुत धनयवाद आपका. आपकी टिप्पणी ही मेरे लिए प्रेरणास्रोत है.
@ सुमन जी: ख़ामोशी तो होती ही है, और भी बहुत कुछ आ जाते है साथ में.
@ पटाली जी , दिगम्बर जी: बहुत शुक्रिया आपका.
@ बोले तो बिंदास जी: आपने बिलकुल सही पहचाना. अंतिम पंक्ति बहुत अटक रही है. यह तो लिखते वक्त ही मैं समझ गयी थी. आपने भी कहा तो मान गयी. मगर इसके सिवा मुझे और कुछ लिखना न आया. या मैं यही पर आके खतम करना चाहती थी. सो बस लिख के समाप्त का दिया.
@ अभि: कुछ नहीं हुआ है. ये बीमारी तो इंसान को उसके समझने के उम्र के साथ लग जाती है. उसी समझ के चंद टुकड़े है.
@ सतीश जी और राकेश जी: सराहना के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.
amazing poem ..
padhkar man kahin ruk sa gaya hai ji
badhayi
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मेरी नयी कविता " तेरा नाम " पर आप का स्वागत है .
आपसे निवेदन है की इस अवश्य पढ़िए और अपने कमेन्ट से इसे अनुग्रहित करे.
"""" इस कविता का लिंक है ::::
http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/02/blog-post.html
विजय
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