वक्त का पहिया बड़ा अजीब-सा होता होगा- समय तो आगे बढ़ता ही प्रतीत-सा होता है, मगर मन न जाने उसी पल के खूंटे से बंधा हुआ है अब तक, जैसे धुरी हो पहिये की. जैसे धुरी के बल पर ही पहिया आगे बढ़ सकता है, तो क्या वैसे ही तुम मेरी धुरी बन गए हो क्या? मुझे आगे तक साथ देने के लिए, वहाँ भी जहाँ तुम्हारी-मेरी ज़मीन का बंटवारा बिना किसी झंझट व वाद–विवाद से हो गया है. बंटवारा का फासला इतना बड़ा होगा, ये तब जाना जब तुम्हें देखने की शिद्दत हुई तो पाया कि तुम नज़रों की सीमाओं से ओझल हो चुके हो. सच में! तुमने तो ज़मीन ही बदल ली, इतनी दूर कि अब हमारी सीमाओं का मिलन संभव ही नहीं. अच्छा! फिर ये बताओ कि मुझे तुम्हारी महक क्यूँ महसूस होती रहती है? इन हवाओं का सीमा –निर्धारण करके भी जाते तो अच्छा रहता. और हाँ! यादों का बंटवारा तो तुमने बिना करे ही चले गए. और वो कुछ लम्हों में से मैं अपने को तुमसे कैसे अलग कर लूँ कि तसल्ली हो जाये कि हिसाब बराबर हो गया है. वक्त की कैंची में भी उतना धार अब नहीं रहा, तुम्हारे नाम पर कैंची भी चलने को इनकार कर देती है. हाँ, अगर चलती है तो उन तारीखों पर ही, जो यह जताना चाहती है कि तुमको बीते हुए अब अरसा हो गए है. इसलिए तो आज भी तुम मुझे ‘कल के बाद का आज’ लगते हो. आज एक और हिसाब बताना चाहती हूँ, जिसका तुम्हें अंदाजा भी नहीं होगा- तुम्हारे जाने के बाद का हिसाब. तुम्हारे जाने के बाद बीते पलों में भी मैं तुम्हारे साथ ही थी, अपनी दुनिया में. उन पलों का ब्यौरा कभी देते नहीं बना, शायद हक की अभिलाषा तुम अपने साथ ले गए थे. अब ये तो बताओ क्या इनका भी हिसाब करना होगा? जहाँ तक मैं समझती हूँ इनका हिसाब करने बैठूं तो मैं ताउम्र तुम्हारी कर्जदार ही रहूंगी. हर बार तुम्हें मैं लौटाने आऊँगी, और हर बार तुम मेरे साथ वापस भी आ जाओगे. तुम भी देखना कहीं मैं भी बची तो नहीं रह गयी तुम्हारे पास. अगर मैं मिलूं तो भेज देना, मेरे सूखे-से आँख पानी को तरसते हैं शायद, खुद को पूरा पा लूँ तो इस अधूरेपन के अहसास से मुक्ति मिले. चलो, हम ये हिसाब-किताब जितनी जल्दी कर ले, उतना ही ज्यादा अच्छा रहेगा हम दोनों के लिए-फिर तुम तुम बन जाना और मैं मैं. बस इसके बाद ‘हम’ मर जायेगा.
14 comments:
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वंदना जी ये हिसाब-किताब इतना आसान भी नहीं .....
चलो एक बार फिर से अजनबी बन जायें हम दोनों ...( यही एक विकल्प है शायद)
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you forgot to address and sign ...
। अहसासो का मार्मिक चित्रण्।
आपकी ये रचना पढ़ के मुझे गुलज़ार का वो गीत याद हो आया - 'मेरा कुछ सामान ,तुम्हारे पास पड़ा है !'
क्या हिसाब किताब किया है? पर प्रेम में हिसाब किताब की जगह ही कहाँ है.
वैसे दिल के अहसासों को बहुत सुंदर तरीके से शब्दों में पिरोया है.
धन्यबाद मेरे ब्लॉग पर आने और अपनी बहुमूल्य टिप्पणी देने के लिए.
बहुत सुन्दर लिखा है......भावनाओं से ओत-प्रोत.....वन्दना !
जिंदगी कि राह में बन जाते हैं कुछ ऐसे रिश्ते
जो बिखर भी जाएँ तो मन से उतारे नहीं जाते
कोमल अहसासों का बहुत मर्मस्पर्शी चित्रण..
bahut difficult si post,
kuch aisa hi yudh chida hua hia mere bhi man me .... padhkar ruk sa gaya ... dhanywad.,
kya aap mujheye post mail karonge?>
badhayi .
मेरी नयी कविता " परायो के घर " पर आप का स्वागत है .
http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/04/blog-post_24.html
main koi kavita likhna chahta hoon is par...
vijay
ये तब जाना जब तुम्हें देखने की शिद्दत हुई तो पाया कि तुम नज़रों की सीमाओं से ओझल हो चुके हो. सच में! तुमने तो ज़मीन ही बदल ली, इतनी दूर कि अब हमारी सीमाओं का मिलन संभव ही नहीं. अच्छा! फिर ये बताओ कि मुझे तुम्हारी महक क्यूँ महसूस होती रहती है? इन हवाओं का सीमा –निर्धारण करके भी जाते तो अच्छा रहता.
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वंदना जी,... जहाँ भी कहीं कुछ ऐसा लिखा जाता है... मैं उसको सजदा जरूर करूंगा ..!
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हर बार तुम्हें मैं लौटाने आऊँगी, और हर बार तुम मेरे साथ वापस भी आ जाओगे. तुम भी देखना कहीं मैं भी बची तो नहीं रह गयी तुम्हारे पास.
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और हर बार मैं अपना माथा झुकाउंगा ..आपकी लेखनी को पुनः एक बार नमन !
वदना जी,
आप मेरे पोस्ट पर आकर मेरी रचना "काफिला" पढ़िए शायद आपको कुछ सुख-चैन मिल जाए। उसका एक छोटा सा अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ-
'जिंदगी का हिसाब अगर तुम भी करने लगे तो,
जिंदगी किसके पास जाकर आपना दुख दर्द सुनाएगी,
........."
काव्यमयी भाषा में सुंदर आलेख।
@ फिर ये बताओ कि मुझे तुम्हारी महक क्यूँ महसूस होती रहती है?
@ तुम्हारे नाम पर कैंची भी चलने को इनकार कर देती है.
@ तुम भी देखना कहीं मैं भी बची तो नहीं रह गयी तुम्हारे पास...
बेहतरीन पंक्तियाँ ......
main to bachpan se hi maths mein kamzor thi yaara.....aur abhi bachpan guzra thode hi hai....aur tum hisaab kitaab lekar baith gayi.....ufff....main thak gayi.....
;)
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