फिर वही सैलाब
जलने आया था शायद,
देर रात फिर एक
सिगरेट सुलगाया था.
बंद दरवाजे में
तुमको मैंने फिर
घुटन की हद तक
गले से लगाया था.
यादों का धुआँ भी
पंखे से लग-लग कर,
बार-बार मुझ तक ही
लौट के आया था.
आँखों में सुबह
हो गई फिर से,
फिर से सूरज
जल के आया था.
मेरी ही चिंगारी
लगी थी सूरज को,
बादल उसके भी
तन पे छाया था.
खिड़की के कांच पर
हाथ रखे थे कई दिन बाद,
और कई दिन बाद भी
ख़ामोश-सा हर साया था.
इक मैना रोज आती है
मुझे टुकुर-टुकुर देखने,
उसे मेरी टकटकी ने ही
आज फिर से भगाया था.
खिडकी खोल के उन
गिरफ़्त धुआँ यादों को,
शायद फिर से मैंने
बाहर का रास्ता दिखाया था.
दूर पक्की जमीन पर बूँदाबाँदी
भी इत्तला कर गई है,
कि सूरज ही रोया था
या दिल मेरा भर आया था.