Saturday, July 16, 2011

दिल मेरा भर आया था.....

फिर वही सैलाब
जलने आया था शायद,
देर रात फिर एक
सिगरेट सुलगाया था.

बंद दरवाजे में
तुमको मैंने फिर
घुटन की हद तक
गले से लगाया था.

यादों का धुआँ भी
पंखे से लग-लग कर,
बार-बार मुझ तक ही
लौट के आया था.

आँखों में सुबह
हो गई फिर से,
फिर से सूरज
जल के आया था.

मेरी ही चिंगारी
लगी थी सूरज को,
बादल उसके भी
तन पे छाया था.

खिड़की के कांच पर
हाथ रखे थे कई दिन बाद,
और कई दिन बाद भी
ख़ामोश-सा हर साया था.

इक मैना रोज आती है
मुझे टुकुर-टुकुर देखने,
उसे मेरी टकटकी ने ही
आज फिर से भगाया था.

खिडकी खोल के उन
गिरफ़्त धुआँ यादों को,
शायद फिर से मैंने
बाहर का रास्ता दिखाया था.

दूर पक्की जमीन पर बूँदाबाँदी
भी इत्तला कर गई है,
कि सूरज ही रोया था
या दिल मेरा भर आया था.

Monday, July 11, 2011

सोचा है कभी?

कूड़े के ढेर में
सपने चुननेवाले
वो नंगे पांव
बिन मांगे
रोगी बन जाते है;
और रोग बांटनेवाले
अब भी बाज़ारों में
प्लास्टिक की थैलियाँ
मांगते है.

सोचा है कभी?

दाने-दाने को
तरसती है
अब भी
कितनी ही अंतड़ियाँ;
और दाने-दाने में
नाम भी नहीं
ढूँढ़ पाती है,
कई घरों की थालियाँ

सोचा है कभी?

दूर सुदूर गाँव के
के चरवाहे बच्चे
नेत्र-जल जला के
क ख ग लिखते है;
क्यूँकि सरकार निकम्मी है
और हम पंखें-बत्ती
बंद करना नहीं जानते है.

सोचा है कभी?

अखबार में
एक पूरा गांव
आर्सेनिकयुक्त जल से
लकवाग्रस्त बताया गया है;
और आईने में देखते हुए
टूथब्रश चलते है,
नल तो बैकग्राउंड म्यूजिक
के लिए चलाया गया है.

सोचा है कभी?

एक हताश किसान
खेत में खड़ी
लहलहाती फसल को
कैसे उजाड़ता होगा;
कैसे तब जा के
किसी धनीजन का
मनचाहा व आलीशान
स्वप्नमहल बनता होगा.

सोचा है कभी?

ग्लोबल वार्मिंग
का दोष एक तरफ
जंगल का कटना
माना जा रहा है;
और इसी बात पर
जागरूकता का हुंकार
उसी जंगल से बने
कागज पर लिख कर
भरा जा रहा है.

सोचा है कभी?

एक गुल्लक पैसा
जब कुछ सांस
खरीदने में अक्षम-से
प्रतीत होते है;
तब ही शायद
सैमसंग टचस्क्रीन
के बाजारू भाव
गिरे हुए-से लगते है.

सोचा है कभी?

देश को प्रगति
के चक्के में
सवार करने की
कोशिश करते रहते है;
और स्व-पतन की
राह पर अक्सर
हम चक्षु-सहित भी
अंधे करार किये गए
बने फिरते रहते है.

सोच के देखना.....