Friday, February 1, 2013

नश्तर एहसास.....


क्यूँ नहीं मिलते शब्द
जिनपे उड़ेल डालूँ
अपने ज़िंदा होने का अहसास।

मुझमें नहीं बची है,
रत्ती-भर भी ज़िंदगी,
ये बात कैसे जताऊँ।

मुझे समय के पहिये को
तोड़ कर जलाना है,
अपनी तपिश में।

उस जलन में खुद को
फिर स्वाहा कर देने का
अहसास भी तो पाना है।

ये अब खेल नहीं रहा,
ज़िंदगी की बिसात पर,
अब और कोई चाल बाकी नहीं है।

पत्ते की तरह बिखर कर
किसी हवा के सरकने का
इंतज़ार करना, अब बाकी नहीं है।

किस्मत, जिंदगी, प्यार, दर्द
सब तेरी माया ही होगी,
मगर अब तू भी असरदार नहीं है।

ये ज़िंदगी है तुम्हारी दी हुई गर,
तो तू भी मान ले अब कि
और तोड़ने की अब तेरी औकात नहीं है।

10 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

लेकर आती अजब कहानी, जीवन की अनचीन्ही राहें..

Yashwant R. B. Mathur said...

बहुत दिन बाद ...मगर लाजवाब लिखा है आपने।


सादर

Akhil said...

ये अब खेल नहीं रहा,
ज़िंदगी की बिसात पर,
अब और कोई चाल बाकी नहीं है।
वाह ....नायाब खयाल ...बेहद सुन्दर ...कम शब्दों बड़ी बात ...बहुत बहुत बधाई।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सुंदर रचना ...हौसला बना रहे ।

shikha varshney said...

आखिरी तीन पंक्तियों ने पूरा मूड ही बदल दिया कविता का. मन हुआ कहूँ कि ,यह हुई न बात.

ANULATA RAJ NAIR said...

बहुत बढ़िया वंदना....
सचमुच वार करते एहसास.....

बहुत बढ़िया..

अनु

Anusia said...

Bahut achi kavita hai. Badiya..

anusia said...

Kafi passionate kavita hai. Aapke man ka bav isse pata chalta hai ki aap kitne passionate hai.

anusia said...

Bahut hi badia kavita hai. Kafi achi lines hai kavita ki.

anusia said...

Bahut hi inspiring and passion wali kavita hai. Padkar jo acha lage aisa jajba haiis lekh me.