जीवन इक नाटक जो होता तो अच्छा रहता....
सारे किरदार पहले से मुझे मालूम रह्ते
और जान भी जाती मैं
उनकी हिस्सेदारी अपने जीवन में.
तब न भय रहता किसी के छूट जाने का
और न ही
कोई रोमांच किसी नए के जुड़ जाने का.
शायद जीवन तब ज्यादा तरतीब से सजी रहती,
मेरे मन के अंदरूनी दीवारों में
ये टूटन, चुभन, खरोंच, दरारें नहीं पड़ी होती.
कब कौन क्या कैसे बोल जायेगा व
कौन बिना कहे क्या सदमा दे जायेगा,
ऐसे हादसों का क्रम तब कुछ कम हो पाता.
कहानी के संवाद तो पहले ही याद कर लेती,
हर पग जीवन का फिर पहचाना-सा लगता,
भले ही दो कदम भी चलना दूभर लगता.
सहमती न मैं फिर कभी किसी रिश्ते की बुनियाद पर,
न ही ठहरती किसी की आस लिए अंतहीन विराम पर.
....क्यूँकि मुझे इस नाटक का अंत तो पता रहता.
5 comments:
अमेज़िंग, वाक़ई लाजवाब भाव लिए अनूठी रचना
ek raja ne aisi demand ki thi.. ki zo koi bhi mere bare me kuch bhi soche mujhe pata lag zayye..
uska kya hasra hua tha...
its brilliant piece of work...
kafi dino baad dil ke itne kareeb ki baat padhi hai...
behtreen likha hai aapne
yun hi achchha achchha likhti rahein
कुलवंतजी आपका प्रश्न वाकई में मुझे फिर से सोचने में मजबूर कर रहा है...क्या हश्र हुआ होगा उस राजा का...जवाब देना कठिन है.. मगर सोच को नयी राह देने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!!!!
Post a Comment