Saturday, October 9, 2010

परिचय







उससे मिले हुए अब साल भर से ज्यादा हो चुके है. पहली बार यही कोई अप्रैल का महीना था बीते वर्ष का, महीने के अंतिम रविवार को मिली थी मैं उससे. यह आज भी अच्छी तरह से याद है मुझे. वैसे तो कोलकाता मैं सिर्फ शॉपिंग के लिए जाती थी, कभी अकेले तो कभी अपनी छोटी बहन के साथ. उस बार भी ऐसे ही चली गई थी, शायद मन को कुछ खटक रहा था, अपने एकाकीपन से तंग आकर मैंने हावड़ा जानेवाली किसी एक लोकल ट्रेन के महिला आरक्षित सीटों में से एक पर अपना कब्ज़ा कर ही लिया. ट्रेन की गति में मैं अपनी बंद आँखों से बहुत कुछ गिरता-सा महसूस कर रही थी, जो ट्रेन की रफ़्तार में किसी और को तो क्या मुझे भी नहीं दीख रहे थे. खैर जो कुछ भी था, मैं सिर्फ एक ही चीज़ उस वक्त महसूस कर पा रही थी, वह विपरीत हवा के तेज-तर्रार चाँटें.

हावड़ा पहुँच कर ध्यान आया कि हाल में ही मेरे बी.टेक. की एक साथी दिल्ली से कोलकाता शिफ्ट कर गयी थी. गत वर्ष की मंदी में उसकी भी नौकरी चली गई थी. नई नौकरी कोलकाता में मिली थी, हालांकि बांग्लाभाषी होने के बावजूद वह कोलकाता बिलकुल भी आना नहीं चाहती थी. मगर कभी-कभी हम जिनसे जितना दूर भागते है, वही हमारे किस्मत में होती है, उसके साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. हाँ तो मुझे उसकी याद यूँ ही अचानक से आ गई. मोबाइल नम्बर तो था ही, सो नंबर घुमाया तो पता चला कि सन्डे घर पर ही मना रही है. मैंने पता वगैरह पूछा और कहा कि एकाध घंटे में आ रही हूँ , सो खाना-वाना बना कर रखे. साल्ट लेक में एक फ्लैट लेके रह रही थी वो. चूँकि मैं कभी उस तरफ गई नहीं थी, और संयोग से मेरे टैक्सी ड्राईवर को भी उस जगह की ज्यादा जानकारी नहीं थी. खैर कई गोल-चक्करों में बार-बार चक्कर लगा के उसके फ्लैट को मैंने ढूँढ ही लिया.

करीब छह वर्षों के बाद हम फिर मिल रहे थे. उससे मिलना एक सुखद अहसास था. कुछ ही पलों में उसकी फ्लैट की चहारदीवारी जैसे पिघल के अपने पुराने कॉलेज के दिनों के होस्टल जैसी शक्ल लेने लगी थी. चंद मिनटों में उन चार स्वर्णिम वर्षों को हमने मिल के फिर से जिया.

बातों-ही-बातों में उसने बताया कि आज उसने किसी और को भी घर पर खाने के लिए बुलाया है. मैं मन-ही-मन सोची – “क्या मैं गलत समय पर आ गई हूँ? “. अपनी गलती सुधारने हेतु मैंने कहा भी कि मैं तब जल्दी चली जाऊँगी. फिर उसने कहा कि वह उसका पारिवारिक मित्र है जो भारतीय नौसेना में कार्यरत है. चूँकि इससे पहले मैं किसी ऐसे व्यक्ति से नहीं मिली जो डिफेन्स सर्विस में हो, सो मन में उत्सुकता तो जाग ही गयी थी. वैसे भी इन क्षेत्रों में कार्य करनेवालों के बारे में बहुत तरह के विचार थे मगर सुनेसुनाये विचार ही, सो आज उन सब बातों की सच्चाई जानने की इच्छा प्रबल होने लगी थी.

करीब एक घंटे के बाद दरवाजे में घंटी बजी तो मन में एक डर-सा पैदा होने लगा, ठीक वैसे ही जब किसी अनजबी से मिलने से पहले होता है. दरवाजा खोलने पर उसकी कामवाली बाई आई थी. गई भैंस पानी में, खामख्वाह मैं डरे जा रही थी. उसके बाद मैं टी.वी. देखने बैठ गई, सहेली गृह-कला में दक्ष थी तो वो रसोई में व्यस्त थी. मुझे एक बार लगा कि पूछ लूँ कुछ मदद चहिये तो, वैसे मन तो नहीं था कुछ भी करने को. फिर भी औपचारिकतावश पूछ ही लिया. उसके मना करने पर मैं फिर बेशर्मो जैसी आराम से एक कुर्सी पर अपने पैर लादे और दूसरे में खुद को और टी.वी. देखना शुरू कर दिया.  उस वक्त टी.वी. मेरे लिए कोई नया-नया इंस्टाल किया हुआ गेम लग रहा था, बरसो जो बीत गए थे रिमोट पर उंगुलियां फेरे. यही एक साइड इफेक्ट रह जाता है, हॉस्टलवादी बन जाने पर.

फिर से एक बार दरवाजे की घंटी बजी, तब तक मैं भूल ही गई थी कि कोई आनेवाला भी है. मेरी सहेली ने ही दरवाजा खोलने का कष्ट किया, मैंने इतनी भी मदद नहीं की उसकी. अंदर जो व्यक्ति आया, उसे देख के मेरे सारे विचार धराशायी हो गए. वह एक कॉलेज छात्र के जैसा पीछे बैग लटकाए, महीनो-महीनो नहीं धुलनेवाली जींस व पूरी आस्तीन वाली बिना इस्त्री किये हुए शर्ट में वो भी ढेर सारी खुशबू के छिड़काव के साथ खुद को शाहरुख खान मान रहा था. मैं मन-ही-मन सोच रही थी कि किस हैण्डसम को देखने की तमन्ना तबसे मन में पाले हुए थे और किस्मत को ऐसे ही लात मारना था. इतना सोच ही रही थी कि वह मेरे सहेली से बंगला में कुछ बोलते हुए हँसा. उसके दाँत हिमालय पर्वतमाला की तरह एक कतार में थे, जिसमे से दो ऊपर के और दो नीचे के दाँत कुछ ज्यादा ही नुकीले थे, सच कहूँ तो उसके मुँह से गर्रर-गर्रर की आवाज़ ही सुनना बाकी रह गया था. पता नहीं उसके दाँतों के लिए कोई टूथ-ब्रश भी बनता भी होगा कि नहीं. उसकी वो हँसी ...... ड्रैकुला की हँसी ही थी, मगर फिर भी सबसे अच्छी और प्यारी हँसी थी. इस बात से इनकार करके मैं खुद पर झूठ का तमगा नहीं लगा सकती. अपना और क्या था, थोड़े अरमां तो सच हो ही गए!

फिर मेरी सहेली ने हम दोनों को भी एक-दूसरे से परिचित करवाया. अभी भी खाना बना नहीं था पूरी तरह से जो कि एक तरह से मेरे लिए अच्छा ही हुआ और मुझे उससे कुछ बात करने का मौका मिल गया. मैं कुर्सी पर और वो ज़मीन पर बैठ गया. रसोई बगल में ही थी तो वह उससे बात भी कर रहा था. और मैं चुपचाप उनदोनों की बातें समझने की कोशिश में, अब अंग्रेजी भी मन-ही-मन में हिंदी में अनुवाद कर समझने की आदत थी तो ये तो बंगला थी. बहुत देर से यूँ ही उनदोनों की बातें सुनते बीत गए, बोर होकर मैंने टी.वी. पर ध्यान देना शुरु कर दिया. जब उनदोनों की अपनी-अपनी बातें, जो कि न जाने कितने ज़माने से अपने-अपने मन के टोकरी में भर-भर के पड़े हुए थे, निकल आये तो मेरी सहेली ने मेरे बारे में बताना शुरू कर दिया. उसके बाद जनाब को मुझमें ध्यान आया, हालांकि मैं शुरू से समझ रही थी कि सामनेवाला जान-बुझ कर मुझे दरकिनार कर रहा था ताकि मैं उसकी बेरुखी से तिल-मिला जाऊँ. उम्र में एक समान होने के बावजूद वह अब भी नया-नया कॉलेज में आया हुआ जैसा बन रहा था. और मैं मन-ही-मन सोच रही थी कि “बेटा इतने साल के तजुर्बे के बाद लोगों को अकल आ जाती है और संभल जाते है. मगर ये जनाब है अभी भी फ्लर्ट करने का भूत दिमाग से नहीं उतरा.” खैर मुझे क्या, मुझे उस जलेबी को उसके अंतिम छोर तक जानने का मन हो आया सो मैंने ही उससे बात शुरू की. “तुम्हारा नाम क्या है?”—जवाब में उसने कहा ‘अमृत’. मेरा अगला प्रश्न फिर यही था- “तुम बंगाली हो?”. उसने कहा – “ हाँ! क्यूँ तुम्हे क्या लगता है?”. चूँकि अब तक मैं उसे नॉन-बंगाली वर्ग में रख रही थी वो भी इसलिए कि उसकी बंगला मुझे समझ में नहीं आ रही थी कि वह बंगला में ही बोल रहा है या किसी और भाषा में. बंगला में उसका उच्चारण, सच कहो तो बंगला को प्रताड़ना देने की तरह था और यह मुझसे बेहतर कौन जान सकता है जो अपने लैब में अपनी बंगला भाषा की दक्षता को निखारने में लगा रहता था. हाँ, तो मैंने उसे जवाब में कहा—“ नहीं. दरअसल मैं तुम्हें नॉन-बंगाली समझ रही थी, और अमृत नाम बंगाल में कम सुनने को मिलता है.” वह फिर मुस्कुरा कर रह गया. थोड़ी देर बाद उसे लगा कि कह देना चाहिए और उसने कहा—“मेरे पिताजी बंगाली है.” मैं भी सिर्फ मुस्कुरा कर रह गई.

कुछ देर की चुप्पी के बाद मैंने कहा—“ तुम क्या करते हो?” “ मैं? मैं इंडियन नेवी में हूँ. अभी कोलकाता में पोस्टेड हूँ.”—जवाब आया. “हम्म, नेवी में क्या करते हो?”. “ कहने को तो इंजिनियर हूँ, मगर करता मजदूरी हूँ. मैकेनिक का काम करता हूँ.”-- और वह हँस दिया. “ अच्छा! तुमने इंजीनियरिंग की है! कहाँ से?” “ मैंने बारहवीं के बाद ही नेवी ज्वाइन कर ली थी. नेवी में ही किसी तरह से डिग्री कर ली. अब तुम जैसे लोग थोड़े जो है. नाम के बस इंजिनियर है हम तो!.”—उसकी इस बात पर मुझे अजीब-सा लगा जो उस वक्त तो नहीं समझ पाई. “कोई नहीं, हर कोई यही कहता है. वैसे तुम्हारा काम क्या और कैसा होता है?”. अब वह मेरे सवालों को बड़े मन से जवाब देने लगा था – “ शिप में रहना होता है, मैं इंजिन सेक्शन में हूँ. इंजिन की देखभाल करना हमारी जिम्मेदारी है. क्यूंकि इसके बिना पूरी शिप बेकार है.” अब मैं हँस के बोली— “हम्म ये हुआ न काम!” फिर हमदोनो पहली बार एक साथ हँसे. फिर मेरे सैंकडों सवाल जैसे कि “ पढाई वगैरह कहाँ से की, शिप के साथ कहाँ–कहाँ गए, किस-किस जगह, देश घूम लिया अब तक तुमने, शिप में कैसे रहते हो, जरूरत पड़ने पर बन्दूक भी उठाना होता है क्या, शिप में कितने लोग होते है, कैसे घुसपैठियों से देश को बचाते हो, कोई अच्छा संस्मरण, कभी लड़ने की नौबत आई है क्या, नेवी की जिंदगी, शिप के अंदर और शिप के बाहर की भी, कैसी होती है, कैसा लगता है देश के लिए काम करना, शिप में क्या-क्या होते है, इंजिन कैसा होता है, राडार या उस तरह के चीजों से कैसे काम करते हो” वगैरह-वगैरह, इस तरह के छोटे-छोटे व बारीक सवालों से मैंने इंडियन नेवी को उसके नज़रिए से जाना जो कि मेरे पहले की सोच से कहीं अलग थी. इसी तरह से वह भी मुझसे मेरी पढाई व पढाई के दौरान विभिन्न जगहों के बारे में, वहाँ के लोगों के बारे में पूछने लगा और मैं भी बताने लगी. शायद अब हमदोनों एक दूसरे को सही तरीके से जानने लगे थे. अब वो उतना छिछोरा जैसा लग भी नहीं रहा था. थोड़ी सभ्यता आ गई थी उसमे भी, ठीक वैसे ही जैसे हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के अलग होते है. उसके बाद मैंने उसके बारे में जानना शुरू किया तो पता चला कि जनाब के शौक भी बड़े अच्छे है. उनमें से एक फोटोग्राफी भी थी, उसकी खींची हुई तस्वीरों को भी देखा जो कि वाकई में बहुत ही सुन्दर थी. ट्रेक्किंग, फोटोग्राफी, हर भाषा का ज्ञान, खेल में भी रूचि होना, मार्शल आर्ट में भी अव्वल रहना, ब्लैकबेल्ट-धारी व और भी कई चीजों में महारथी होना, इन सबके साथ उसकी एक अच्छी बात यह कि हर किसी को किसी-न-किसी प्रकार से अपनी ओर मोहित कर लेना और सबसे अच्छी बात उसका दिल जो कि एक मासूम नन्हे से बच्चे की तरह था, जिसे मैं इंडियन नेवी के ड्रेस में बिलकुल भी उतार नहीं पा रही थी. इस बीच हम तीनों ने खाना भी खा लिया. उसके बाद एक साथ बैठ कर हमने काफी गप्पे मारी.

अब मेरे जाने का वक्त हो गया था. मुझे ट्रेन पकड़ कर खडगपुर भी पहुँचना था, सो मैंने उनसे विदा लेने की सोची और अपनी जाने की तैयारी करने लगी. इतने देर में मुझे और उसे भी यह समझ में आ ही गया था कि हमदोनों एक दूसरे को जान कर काफी खुश थे, बस ज़ाहिर करने में एक-दूसरे से बच रहे थे. बस यही एक जगह थी जहाँ पर हम दोनों एक दूसरे को बनावटी लग रहे थे. लड़की होने का फायदा उठाते हुए मैं ‘कोई फर्क नहीं पड़ता’ वाला दुपट्टा ओढ़े घर से निकलने लगी. न उसने ही और न मैंने भी एक-दूसरे से इसी तरह परिचित बने रहने के लिए एक-दूसरे से पता, मोबाइल नंबर, ई-मेल वगैरह माँगने की जरूरत समझी. जूते पहनते वक्त मन में रह-रह के ख्याल आ रहे थे कि “इससे और भी बात करने को क्यूँ मन कर रहा है? नहीं रहने दो, इस तरह का सोचना ठीक नहीं है, कहीं मुझे गलत न समझ ले. कभी-कभी एक दिन की मुलाकात ऐसी ही होती है, और शायद यही काफी है मेरे लिए.” वह भी मेरी तरफ देख कर ऐसा ही कुछ सोच रहा था, मगर उसे भी समझ में नहीं आ रहा था कि सहेली की सहेली से, वो भी पहली मुलाकात में कितना और किस सभ्य-हद तक बात करना चाहिए. उसे इस बात से भी कोफ़्त हो रही थी कि “इस पर मेरा असर क्यूँ नहीं हो रहा है? ऐसे कैसे फिर कभी नहीं मिलने के लिए वापस चली जा रही है?” मगर दोनों ने जैसे फिर-से अनजान बनने के लिए समझौता कर लिया हो. हमने फिर-से अपना-अपना बनावटी मुखौटा लगा लिया.

मेरी सहेली तो मुझे दरवाजे से ही विदा कर देती अगर वह उसे नहीं कहता. उसके नीचे तक छोड़ आने की जिद सुनकर मेरे मन के शक को सच की मुहर मिल गई और मैं मन-ही-मन हँस दी. घर से नीचे मुख्य सड़क पर आते-आते वह मुझसे जल्दी-जल्दी बातें करने लगा और एक साँस में कई सवाल पूछते गया. बस सिर्फ एक ही चीज़ नहीं पूछ पाया जिसे पूछने के लिए उसने इतने सारे बिना काम के सवाल कर डाले. जैसे वह चाहता हो कि मैं ही उससे यह सवाल करूँ. मगर मैं कैसे करती, सहेली का भी ध्यान आ गया कि आई थी इससे मिलने, अब क्यूँ ऐसा लग रहा है कि किसी और से मिल के जा रही हूँ.

थोड़ी ही देर में मुझे एक ऑटो भी मिल गई जो मुझे स्टेशन तक ले जानेवाली थी. ऑटो के बायीं तरफ से मैं बैठ गई. मेरे दाई तरफ वो दोनों खड़े हाथ हिलाने लगे और साथ में हिदायतें भी कि ठीक से पहुँच जाना और पहुँच के फोन कर देना. उनकी सब बातों का जवाब हाँ में देकर मैं ऑटो में ठीक से बैठने की कोशिश करने लगी. यकायक कुछ ध्यान में आया और मैंने उस एक दिन के अनजाने साथी को आखिरी बार ठीक से देखने और अलविदा कहने की इच्छा से अपना सिर थोड़ा झुका कर उसे देख मुस्कुराना चाहा. मगर शायद ऑटो वाले भैया ने गाड़ी थोड़ी आगे बढ़ा दी थी, जिससे मैं उसे देख नहीं पायी. सिर्फ अपनी सहेली को ही हौले से फिर से आने का वादा कर आगे की ओर देखने लगी. मन में दुःख तो हुआ, पर अपनी किस्मत को इतना ही अच्छा और भाग्यशाली मान कर मैंने अपने आपको समझा लिया. ड्राईवर भैया ने ऑटो स्टार्ट भी कर दी थी, उसकी आवाज़ में मेरे मन की आवाज़ भी मुझे कम सुनाई देने लगी.

“तुम ऑरकुट में हो न?”—मैंने हडबड़ा कर अपनी बायीं तरफ देखा तो पता नहीं कब और कैसे वह घूम कर ऑटो के दूसरी तरफ आ गया था और मुझे देख मुस्कुरा रहा था. मैंने जल्दी में हामी भरने के लिए सिर हिलाया और ऑटो आगे बढ़ गई.

अब दोनों ही, मैं इस ऑटो में और वह उस सड़क पर, अकेले-अकेले बढ़ रहे थे, मगर इस बार उस नकली मुखौटे को चेहरे से हटा कर, एक-दूसरे से अंतत: अपना सच्चा परिचय करवा कर.

13 comments:

Udan Tashtari said...

बुकमार्क कर लिया है..कल छुट्टी है..आराम से पढ़ते हैं..तब तक:

या देवी सर्व भूतेषु सर्व रूपेण संस्थिता |
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ||

-नव-रात्रि पर्व की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं-

Asha Joglekar said...

आगे क्या हुआ कहना ।

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

समीर जी आपको भी नवरात्रि की शुबकामनाएं!. आशा जी आगे कि कहानी भी जारी रहेगी. आप बीच बीच में आते रहियेगा.

Anonymous said...

यह कहानी तो आराम से पढनी पड़ेगी....save कर ली है.. फिलहाल...मेरे ब्लॉग पर इस बार
सुनहरी यादें ....

Anonymous said...

यह कहानी तो आराम से पढनी पड़ेगी....save कर ली है.. फिलहाल...मेरे ब्लॉग पर इस बार
सुनहरी यादें ....

संजय भास्‍कर said...

सुंदर प्रस्तुति....

नवरात्रि की आप को बहुत बहुत शुभकामनाएँ ।जय माता दी ।

संजय भास्‍कर said...

AADHI PADH LI HAI..
ADHI SUNDAY KO PADH LUNGA

amar jeet said...

बहुत लम्बी कहानी है सोचा था सन्डे को छुट्टी वाले दिन आराम से पडूंगा परन्तु चाहकर पूरा नहीं पद पाया चलो देर रात कम्प्लीट जरुर हो जायेगा !

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

शेखर, संजय जी और अमरजीत जी , जरूर से समय निकाल के पढियेगा. हाँ थोड़ी लंबी जरूर हो गयी है, मगर इससे कम भी नहीं लिखी जाती.

Rahul Singh said...

फिल्‍म की पटकथा सी. लगा कि मध्‍यान्‍तर आ रहा है और ब्रेक हुआ.

Anonymous said...

ohh.....
aisi jagah roki hai kahani, TRP badha rahi hain aap to pane blog ka...
agle bhag ka besabri se intzaar hai....

abhi said...

हमने तो दूसरा भाग ही पहले पढ़ा...खैर, ये कहानी भी अच्छी रही...
हमारा भी एक दोस्त इंडियन नेवी में है जिसे हम लोग "मजदूर" ही कहते हैं :) हा हा

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

ओह्हो..... आपने तो एक बार में ही दोनों पढ़ लिया... इसका मतलब यह है कि पोस्ट इतना भी बुरा नहीं है.. आपका ब्लॉग में आने का धन्यवाद और हाँ शुभ विजयादशमी....