मेरे साथ मेरी जिंदगी रहती है और उसके साथ और भी कई, जैसे कि उसके खिलौने मन बहलाने के लिए, उसकी जरूरतें, उसकी इच्छाएं, चंद सपनें और कुछ मुठ्टी-भर आशाएं. उसे आज भी अपने से इतना जुड़ा पाती हूँ कि समझ में नहीं आता ये रिश्ता इतना अच्छा है तो क्यूँ हैं? कैसे है? दिनभर तो अपने-अपने कामों में व्यस्त होते है, मगर अक्सर रात को जब उसका बिस्तर ठीक करती हूँ तो वह जल्दी-से आके दुबक के सो जाती है. अक्सर चादर ओढ़ाते समय वह मेरा हाथ थाम कर कुछ देर को शांत हो जाती है, उस वक्त उसकी आँखों में कुछ भी नहीं होता. सोचती हूँ क्या कुछ कहना चाहती है? पूछने पर हँस के अपना सिर न में हिला देती है, बस एक दबाव-सा महसूस करती हूँ, उसके नरम हाथों को अलग करते वक्त. उसके साथ रहते-रहते मुझे भी अब उसकी आदत-सी लग गई है. उसकी हर बात, जरूरतों का ख़याल रखते-रखते समय कितना बीत गया है, यह सोचने बैठती हूँ तो खुद पर रश्क होने लगता है और मन-ही-मन उस देनेवाले का शुक्रिया भी अदा कर देती हूँ.
आज भी उसे वही चादर ओढ़ा रही थी. मगर उसने मेरा हाथ नहीं थामा. कुछ अजीब-सा लगा, क्या मुझसे नाराज़ है वो? मगर उसे सोता देख पूछने का मन नहीं हुआ. अनुतरित्त-से अहसास के साथ ज्यों-ही पीछे पलटी, उसने झट से मेरा हाथ थाम लिया. पीछे मुड़कर देखा, तो वह कनखियों से मुझसे जैसे कुछ बताना चाह रही थी.
“क्या हुआ?”—आखिर मुझसे रहा न गया और मैंने पुछ ही लिया.
“तुम्म्म......हे....कुछ लगता नहीं है कि क्या हो रहा है?”—उसने बड़ी मुश्किल से ये शब्द अपने गले से जैसे घोंट के निकाला हो.
“क्या हो रहा है? या हो गया जो मुझे समझ में नहीं आ रहा?”
“तुम क्या उसे महसूस नहीं कर पाती, जिसे मैं रोज महसूस करती हूँ.”—इस बार उसकी आँखों में दर्द था.
“तुम्हें कोई परेशानी है? तो मुझे अब तक बताया क्यूँ नहीं? मुझसे खुल कर बताओ न. मुझे सही में समझ में नहीं आ रहा कि क्या गलत हो रहा है.”—अब मेरी परेशानी बढ़ने लगी थी. उसकी चुप्पी मेरे हर प्रयत्न को खोखला साबित कर रही थी.
“तुमने मुझे सब-कुछ दिया है या देने की हरसंभव कोशिश भी की है. मैंने हंसना चाहा तो मुझे उसकी वजह दी. हर जरूरतें जिनसे कई लोग तो वंचित ही रह जाते है. मेरे बिस्तर में मेरे लिए तुमने हर चीजें संभाल कर रखी है. खुशियाँ, सपने, इच्छाएं, आशाएं, दुआएँ भी......”- इतना कह कर वह चुप हो गई.
“तुम्हें क्या ऐसा मैंने नहीं दिया, जिसके लिए तुम मुझसे कुछ कहने में भी हिचक रही हो.”—अब मेरी सब्र ने जवाब दे दिया था. अपनी सबसे प्यारी को मैंने इतना गुमसुम कभी नहीं देखा था.
“मैं नहीं कहती कि तुमने मुझे किसी चीज़ से वंचित रखा है. मगर कुछ तो गलत हो रहा है. बस सोचने से डरती हूँ कि कैसे तुम्हें कहूँ? तुम क्यूँ नहीं देख पाती, जो मुझे दीख रहा है.”
मैंने चारों तरफ आँखें दौडाई, हर चीजों को उलट-पुलट कर देखा, किवाडों को भी खोल-बंद कर देख आई. “अब तुम ही बता दो न”—मेरे इस अनुनय पर उसने मेरा हाथ मेरी ओर खींचा. मैं उसके सिरहाने तक आकर बैठ गई. वह अब प्यार से मेरे हाथ को अपने दोनों हाथों से सहलाने लगी. कुछ क्षण ऐसे ही बीत गए.
“सब कुछ सही है, यहाँ पर. कोई कमी नहीं है. पर ये जो चादर जो तुम ओढ़ाती हो, इसे कभी ध्यान से देखी भी हो? यह उदासी की चादर है. मेरी इच्छाएं, आशाएं, उमंगें सबको कम भले ही कर दो, मगर इस चादर के बोझ तले जीना बहुत कठिन है. यह बात तुम आज तक कैसे नहीं समझ पाई?”
7 comments:
Yes! yahi bewajah udaasi jindagi ke sachhe arth talaash sakti hai...
जिंदगी ...
क्या कहूँ... बहुत ज्यादा खूबसूरती से लिखा है...(ये बस मैं तारीफ़ करने के लिए नहीं लिख रहा, सच में है)
अपने साथ कुछ ऐसा ही होता है कभी...:)
ह्म्म्म... चादर बदल देनी चाहिए आपको.. कम से कम उसे तो ऐसी चादर की आदत पड़ने से रही.. :P
@राजकुमार जी, आपकी बात से सहमत हूँ, नहीं तो इस तरह मैंने पहले कभी नहीं सोचा था. बस तलाश ज़ारी है.
@पसंद करने के लिए शुक्रिया अभि जी,वैसे पेस्ट्री वाली बात मुझे भी जानने का मन हो रहा है, आप बताएँगे ना! क्या करूँ उत्सुकता पर काबू रखना थोड़ा मुश्किल है. हे हे
@ दीपक जी, खुशियों वाली चादर महँगी हो गई है, या रेशम जैसी होती होगी, ज्यादा दिन नहीं टिक पाती. :-(
अजीब हो तुम भी मेरी जिंदगी,
कभी हंसाने की पुरजोर कोशिश करती है;
तो कभी मुझे रोता देख
खुद भी खिलखिलाती है.
जिंदगी तुम ऐसी क्यों हो .....?
तुम्हें क्या ऐसा मैंने नहीं दिया, जिसके लिए तुम मुझसे कुछ कहने में भी हिचक रही हो.”—अब मेरी सब्र ने जवाब दे दिया था. अपनी सबसे प्यारी को मैंने इतना गुमसुम कभी नहीं देखा था.
jab koi hume itna pyar karta hai ..
uske samne gusum hona acha baat nahi..
@ deepak ji ne sahi kaha chadar badal deni chaiye.
Post a Comment