Sunday, October 24, 2010

निश्चित्त तौर पर अकेली.....

अब मैं सोचती नहीं हूँ,
अब प्रतिवाद की कोई गुंजाईश भी नहीं है.
अब मुझे हर चीजों को
दो बराबर भाग में बांटना नहीं होता.

लाईब्रेरी में एक कुर्सी अब
अकेली ही रहती होगी.
२.२ का एक चक्कर भी
अकेले पूरा करती हूँ.
और “main building” का वो चबूतरा
मुझे अब भी नहीं पसंद है.

कभी-कभी “टिक्का” में जाकर
एक बड़ी चाय की चुस्की भी ले लेती हूँ.
eggies” में “horlicks” कभी नहीं पीती,
और न ही उस “culvert” में बैठने
की इच्छा भी होती है.

जब-जब कमरे में बैठ के मैं
तंग होने लगती हूँ तो
यह तय करने बाहर निकल जाती हूँ
कि अब मैं निश्चित्त तौर पर अकेली हूँ.






कुछ शब्दों का उचित उल्लेख यहाँ मैं जरूर करना चाहूंगी, ताकी पाठकगण को सही मनोभावों को समझने में सुविधा हो -----


टिक्का: एक स्थान का नाम, जहाँ चाय, समोसे , खाने वगैरह के साथ लोग अपनी व्यस्तता को ब्रेक देने आते है.


eggies: हॉस्टल में रहनेवालों के लिए सबसे बड़ा धाम, रात को जब मेस में खाना मिलना बंद हो जाये, तो रात भर यह जगह खुली रहती है, हम जैसे हॉस्टल में रहनेवालों के लिए. वहाँ जाके अक्सर मैं horlicks पीना पसंद करती हूँ.


२.२: एक गोलाकार रोड का लोकल नामकरण, जिसकी लम्बाई २.२ किलोमीटर है और यह छात्रों के लिए दौड़ने व व्यायाम का आम जरिया बन चुका है.


culvert: मेरे हॉस्टल के सामने ही है, जिसमे मैं घंटों बैठ के सड़क की ओर देखना पसंद करती हूँ.


main building का चबूतरा: इसलिए नापसंद है कि वहाँ पर बैठनेवालों को लोग जोड़े, युगल के रूप में ही देखते हैं.

27 comments:

उस्ताद जी said...

1/10

अस्पष्ट भाव
अबूझ पोस्ट
एकल मन की व्यथा स्पष्ट करिए

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

उस्ताद जी, वैसे तो इसे अबूझ ही रखना चाहती थी, फिर भी लगा कि आपने पूछा है तो बता देती हूँ,

टिक्का: एक स्थान का नाम, जहाँ चाय, समोसे , खाने वगैरह के साथ लोग अपनी व्यस्तता को ब्रेक देने आते है.

eggies: हॉस्टल में रहनेवालों के लिए सबसे बड़ा धाम, रात को जब मेस में खाना मिलना बंद हो जाये, तो रात भर यह जगह खुली रहती है, हम जैसे हॉस्टल में रहनेवालों के लिए. वहाँ जाके अक्सर मैं horlicks पीना पसंद करती हूँ.

२.२: एक गोलाकार रोड का लोकल नामकरण, जिसकी लम्बाई २.२ किलोमीटर है और यह छात्रों के लिए दौड़ने व व्यायाम का आम जरिया बन चुका है.

culvert: मेरे हॉस्टल के सामने ही है, जिसमे मैं घंटों बैठ के सड़क की ओर देखना पसंद करती हूँ.

बाकी चीजें वही ही है जो हर इंस्टीट्यूट में होता है. एक और बात, यह मैंने लेख के रूप में नहीं लिखा है, यह सिर्फ मेरी मन की बात है, जो अस्पष्ट ही है.

उस्ताद जी said...

अच्छा किया आपने स्पष्ट कर दिया. अब थोडा-थोडा साफ़ हुआ. बेहद अच्छा होगा कि अपनी भावनाओं के साथ आप पाठक को भी शामिल करें.

संजय भास्‍कर said...

अब मैं सोचती नहीं हूँ,
अब प्रतिवाद की कोई गुंजाईश भी नहीं है.
अब मुझे हर चीजों को
दो बराबर भाग में बांटना नहीं होता.

वाह ! बेहद खुबसूरत ...हर एक पंक्ति में गहरी संवेदनाएँ भरी है

संजय भास्‍कर said...

इतने सारे खूबसूरत एहसास एक साथ ...
कैसे समेटे इन्हें एक टिप्पणी में
बहुत ख़ूबसूरत हमेशा की तरह ...!

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

@ जी उस्ताद जी, आपकी बातों से सहमत हूँ, पाठकगण को अबूझ उहापोह में रखना सही नहीं होगा. आगे से ख्याल रखूंगी.आपकी टिप्पणी के लिए, खासकर सलाह के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद!

@ संजय जी शुक्रिया मन के भावों को समझने के लिए.

amar jeet said...

निश्चित तौर पर मै अकेली .......... लेकिन आप अकेली कहा है अब आप ब्लॉग जगत से जो जुड़ गयी है वैसे आप अच्छी और सुंदर रचनाये लिखती है और मै समझता हु की इतनी सुंदर और अच्छी रचनाये जो की आपके मन के भावो को प्रगट करती है वो भी तो आपकी और बहुत करीबी दोस्त है !

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

अमर जीत जी, आपकी बातों से बहुत ही अच्छा लगा, सोच को नयी राह देने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद.

Kunwar Kusumesh said...

अगर आप उस्ताद जी के कहने पे कविता में छुपे भावों को स्पष्ट न करतीं तो वाकई समझना मुश्किल हो जाता कि आपका तात्पर्य क्या है.
बहरहाल आप में एक कवयित्री है तो.

कुँवर कुसुमेश
समय हो तो मेरा ब्लॉग:kunwarkusumesh.blogspot.com कृपया देखें

Udan Tashtari said...

स्पष्टीकरण से स्पष्ट हो गया. :)

rashmi ravija said...

पहेली सी कविता..
जिसे बूझने को ढेर सारे क्लूज़ दे दिए...:)
अच्छी लगी..

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

ji mujhe bhi aisa hi laga ki ustad ji baat maan kar bahut achcha kiya. dhanyawad sabon ka.

Yashwant R. B. Mathur said...

भावों की सशक्त अभिव्यक्ति.
पहली बार आप के ब्लौग पर आना सार्थक हुआ.अब आता रहूँगा.

Yashwant R. B. Mathur said...

भावों की सशक्त अभिव्यक्ति.
पहली बार आप के ब्लौग पर आना सार्थक हुआ.अब आता रहूँगा.

Amrendra Nath Tripathi said...

ब्लॉग-अनुसरण करने के लिए धन्यवाद !

कविता पढ़ना / में बहना आसान है ! मन आसान काम चुन लेता है इसलिए आपकी कई कवितायें देख डाली मैंने ! विशेषता कहूँ तो एक वाक्य में तो भावुक मन की सीधी-सरल-सहज अभिव्यक्तियाँ हैं आपकी कवितायें ! बांकपन ( जो कि साहित्य में सकारात्मक माना जाता है ) की अलंकृति नहीं है आपकी कविताओं में !

आरंभिक काव्य यात्रा का क्रमशः गद्य की ओर जाना लेखन के क्रमिक विस्तार-परिष्कार-परिवर्धन का सूचक है !

@ '' लाईब्रेरी में एक कुर्सी अब
अकेला ही रहता होगा.
--- कुर्सी के साथ 'अकेली' व 'रहती' का विधान होगा , न कि 'अकेला' व 'रहता' का ! कभी-कभी लापरवाही में ऐसा हो जाता है !

बाह्य जीवन-जगत का रीतापन कैसे भीतर के रीतेपन का सृजन करता जाता है , आपकी यह कविता इस भाव को व्यक्त कर रही है ! दिनचर्या से प्रस्तुत किया जाता जीवन-सच ! सुन्दर कोशिश ! आपके ब्लॉग का फीड संजो लिया है ! आभार !

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

यशवन्त जी ब्लॉग में आने के लिए व सराहने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद!

अमरनाथ जी, त्रुटियों की ओर ध्यान दिलाने के लिए तहे दिल से शुक्रिया. आशा है आप इसी तरह से मार्गदर्शन करते रहेगे. वैसे मैंने सुधार कर लिया है. धन्यवाद!

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

kahin dil tootne ki awaz aayi ... ye sada kahin gahrai se aayi !

महेन्‍द्र वर्मा said...

लीक से अलग हटकर कविता...अच्छी लगी।

माधव( Madhav) said...

nice

Anand Rathore said...

if people so called intelligent cant read between lines.. i hate to explain... kisko samajh nahi aata ki un jagho se zyada vahan ki baat kavita ka maane hai..tan sab dekhte hain mann koi koi...

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

तन सब देखते है मन कोई- कोई..... बात कहीं भीतर तक छू गई.

abhi said...

जब से कॉलेज छोड़ा हूँ, तब से मुझे अकेलेपन का अच्छा ख़ासा अहसास हो गया है...हर किस्म के अकेलेपन का :)
कई लोगों के बीच खुद को अकेला महसूस करना, कोई न हो तो अकेला महसूस करना...ऐसे ही कितनी बातें....

इन्टरनेट "फेसबुक, ब्लॉग, चैट" अगर न होता तो मैं सोच भी नहीं सकता की अकेलेपन से कैसे लड़ता मैं :) :)

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

अभि जी इन्टरनेट व ब्लॉग में अकेलापन किसी पोस्ट के तहत जमा या छिपाया जा सकता है. बांटा नहीं जा सकता. वैसे भी किसी ने ठीक ही कहा है, दुःख को मन में ही रखो, यहाँ इसका हिस्सेदार कोई नहीं.
आपके तो इतने अच्छे दोस्त है, उन्ही में सब कुछ है. वरना जिंदगी कभी कभी बिना कारण ही छूट जाती है.

एक बेहद साधारण पाठक said...

अगली रचना पहले पढी पिछली बाद में ... इस रचना का अगली रचना से कनेक्शन लगता है ...
अरे ! ऐसे भाव तो तब उठते है जब भाई/बहन/रूममेट से अलग होना पड़ता है

एक बेहद साधारण पाठक said...

और हाँ .. एक प्रार्थना है .... मेरे सभी कमेन्ट सेन्स ऑफ़ ह्यूमर के साथ पढ़ें जाएँ ... वैसे आजकल मेरे काफी कमेन्ट उड़ाए जा रहे हैं [अन्य जगहों पर], अब कमेन्ट कर तो दिए मैंने .. पर अब डर लग रहा है :(
[इस वाले कमेन्ट को सीरियसली पढ़ा जाये ]

एक बेहद साधारण पाठक said...

कभी कभी सोचता हूँ अपना प्रोफाइल पिक्चर बदल लूँ ,ये सेन्स ऑफ़ ह्यूमर से बहुत अलग लगता है ना ??
सामने वाले को गुस्सा आना नेचुरल है :))

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

अरे नहीं नहीं ..... हम क्यूँ डिलीट करेंगे, कभी -कभी हमें मन करता है तो टिप्पणियां पढकर ही खुश हो जाते है.

और आपको प्रोफाइल फोटो बदलने का मन है तो ही बदले. दूसरे के हिसाब से चलेगे तो कितने फोटो बदलेगे? सबकी पसंद एक जैसी होने से तो रही. वैसे भी..... सुनो सबकी,करो मन की.