Saturday, October 23, 2010

लव आज कल - भाग ३

एक वो सागर है, जो सबको दीखता है. लोग तो घूमने भी जाते रहते है, सैंकडों की तादाद में मगर चींटियों के पोशाक में. और यह सब समझने के लिए मैं भी कभी-कभी उन चींटियों का हिस्सा बनकर चली जाती हूँ, उस सागर के पास. उस सागर में कितने ही पत्थर फेंकों, एक का भी जवाब नहीं आता; चाहे किनारे के सारे कंकड-पत्थर खतम क्यूँ न हो जाये. और एक ये मन का सागर है, एक भी ऐसी यादों का कंकड़ नहीं होगा जो इस सागर में फेंकने के बाद भी वापस नहीं आया होगा. हर बार अपनी यादों को डुबोने की कोशिश करती हूँ, हर बार वक्त की लहरों के साथ वह वापस चली आती है. कई बार, और भी 'भूल चुके हुए' कंकड़ फिर-से चोट करने आ जाते है. हाँ, कभी-कभी कोई याद वापस नहीं आती तो सुकून-सा लगता है. मगर जब उस न वापस आनेवाली याद के घुलने से और-भी खारा हो चुका कोई थपेड़ा बिना बताये भिंगो के चला जाता है, तब उसके न वापस आने का मतलब भी समझ में आने लगता है.

आज भी एक लहर ऐसी आई थी, जिसके खारेपन का एक ही कारण था -- उसका बिन-बताये खड़गपुर आ टपकना.

वह भी कोई रविवार का दिन ही था. सहेलियों ने बिग बाज़ार जाने का प्लान बनाया था. हमारे यहाँ खड़गपुर में अभी तक मॉल के नाम पर यही मनोरंजन का साधन है, खासकर गर्मियों में उमस भरी शाम को हम ए.सी. की सुविधा पाने भर के लिए भी यहाँ जाना पसंद करते थे. मैं नहाकर कमरे में आई ही थी कि उसका फोन आ जाता है.

“उल्लू क्या कर रहा है? आज हम फ्री है. ऑनलाइन विडियो चैट करेगा?”—उसकी इस बात को सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आया. आना भी वाजिब था. हुआ यूँ कि कुछ दिनों पहले उसने मुझे जी टॉक पर विडियो चैट के लिए निमंत्रण भेजा था. मैंने आज तक चैटिंग भी इतनी नहीं की थी, जितनी उसके कारण, और ये तो कभी भी नहीं. उसके लिए ही बाज़ार से मैंने १३०० रुपये का वेब कैमरा भी खरीद लायी. मगर उसके बाद उसने कभी फिर पूछा भी नहीं और मैं सोचती रही कि मैंने कोई बेवकूफी तो नहीं कर दी इस मुए को खरीद के. और अब इतने दिनों के बाद उसे फिर कहीं से यह बात याद आई और ऐसे पूछा तो लगा कि घाव पर नमक, मिर्च, लहसुन-प्याज सब मल दिया हो.

“आज अचानक से यह बात कहाँ से याद आ गई?”

“याद तो आया न! अच्छा तुम जल्दी से ऑनलाइन आ जाओ.”—मेरे चिढ़ को ज़रा-सा भी नहीं भांपते हुए उसने मुझे कहा.

“ओके! मगर मुझे टाइम लगेगा. मुझे वेब कैमरा लगाना होगा.”—मैंने भी अपने चिढ़ व गुस्से को दबाते हुए कहा.

“अरे वेब कैमरा की क्या जरूरत है? उसके बिना भी कर सकते है.”—अब मेरे चौंकने की बारी थी.

“वह कैसे भला? ऐसे कैसे हो सकता है?”—मैंने पूछा.

“अरे दो तरह से विडियो चैटिंग हो सकती है! एक वेब कैमरा से और एक ऑनलाइन सुविधा का इस्तेमाल करके.”

“अच्छा! मुझे तो पता ही नहीं था. तुम बताओ मैं वैसे ही करती हूँ”—मैं उसकी बातों पर पूरी तरह से विश्वास करते हुए उसके अगले निर्देश का इंतज़ार करने लगी.

“तुम ऑनलाइन आया?”

“हाँ”

“तो अब हॉस्टल के बाहर देखो.”

“हॉस्टल के बाहर?”

“हाँ! हॉस्टल के बाहर देखो. मैं दीख रहा हूँ? कि नहीं?”—सच कहूँ तो मुझे उस वक्त भी समझ में नहीं आया कि माज़रा क्या है?

“विडियो चैटिंग करनी है तो नीचे आओ. उल्लू कहीं की!”

“क्या? तुम हॉस्टल के बाहर हो? कब आये? बताया क्यूँ नहीं? और मुझे बेवकूफ बना रहे थे.”—इतना सबकुछ एक साँस में कहते हुए मैं दौड पड़ी थी नीचे की ओर. सीढ़ियों में सरपट भागने की आवाज़ सुन कर वह मुझे डांटने लगा—“इडियट! गिर जायेगा. तुम आराम से भी आ सकती हो.”

नीचे उतर कर भी मैं सड़क के इधर-उधर देख रही थी और वह मेरे आगे-पीछे अपनी बाइक से घूम रहा था. हेलमेट की वजह से मेरा शक नहीं जा रहा था. फिर खुद ही आके मुझ पर हँसने भी लगा था. और मैं बेहद गुस्सा, इस बात र कि बिना बताये क्यूँ आया? और वह भी कोलकाता से खड़गपुर बाइक पर.

वह कुछ ही घंटें साथ रहा, मेरे साथ कैम्पस, मेरे लैब घुमा और फिर वापस चल दिया, मुझे बिग बाज़ार के सामने छोड़ के. उसे जाने देने का मन तो कभी करता ही नहीं था, बस मन की ही कभी सुने नहीं.

आज भी सोचती हूँ तो हँसती हूँ कि कोई तो पागल था मेरे लिए, जो सिर्फ मिलने भर के लिए सुबह-सुबह उठ के चल आया इस तरह. नहीं आता तो पता कैसे चलता कि यह दिन भी मेरे किस्मत में लिखी हुई थी.

मगर कभी-कभी यह भी सोचती हूँ कि ऐसी किस्मत क्यूँ लिखी जाती है? या इस तरह के किस्मत को लिखने के बाद क्या उस लिखनेवाले के कलम की स्याही सूख जाती थी या एक बार लिखने के बाद वो कलम तोड़ दी जाती थी, कि दुबारा वही किस्मत, वही पल जिया नहीं जा सके.

9 comments:

संजय भास्‍कर said...

आज भी सोचती हूँ तो हँसती हूँ कि कोई तो पागल था मेरे लिए, जो सिर्फ मिलने भर के लिए सुबह-सुबह उठ के चल आया इस तरह. नहीं आता तो पता कैसे चलता कि यह दिन भी मेरे किस्मत में लिखी हुई थी.

@ pyaar hota hi aisa hai jo kuch bhi kar gujar jata hai.
dil jo kehta hai karna hi padta hai

संजय भास्‍कर said...

bahut khoob Vanadana ! !..........mai to fan ho gaya apka

yeh bhag bhi bahut sunderta se byan kiya aapne

regards
sanjay

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

धन्यवाद संजय जी..... आप सबों के हौसले से आगे लिखने का मन भी हो रहा है. गलतियों को भी बताने का कष्ट कीजियेगा.

vandana gupta said...

बहुत सुन्दरता से भावो को पिरोया है।

Anonymous said...

आपकी कहानियों का तो फैन हो गया हूँ...और गलतियां ??/ हम कहाँ से बताएँगे भला..... अपने बस की बात नहीं..

उस्ताद जी said...

5.5/10

खुबसूरत अहसासों से भरी नाजुक बयानी.
यूँ लगा किसी की डायरी के दो-चार पन्ने
उड़ कर मुझ तक आ गए हों.

abhi said...

सही है....कहानी अच्छी बढ़ रही है...वैसे इसे कहानी कहना तो उचित नहीं...ये तो हकीकत है(शायद, है न?)

:)

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

हा हा ..... अभि जी..... आप बस कहानी ही समझिए. हमें तो अब बस लिखने की ही ख्वाहिश रह गयी है.

Anand Rathore said...

ye sher mera nahi hai..naam yaad nahi aata.. kyunki wo shayar mere bahut karib hain... bahut ajeeb hoon..lagta hoon , lekin hoon nahi..

wo bahut khushnaseeb hota hai.. jiska naam bhi yaad nahi rahta..wo itna kareeb hota hai..

khair sher hai..

ab jiske ji mein aaye le jaaye roshani..
humne to dil jala ke sare aam rakh diya...

mujhe umeed hai.. likhne se kahani ki roshni ne kuch andhera kam zarur kiya hoga...likhna badi taqat hai..khubsurat andaaj se behtar zazbaat hai..likhte rahiye... jiske dil mein aaye..le jaaye roshani...