मन जब भी आसमान में
बादल को देखता है,
तो उसे कभी किसी
बुढ्ढे की दाढ़ी समझता है,
तो कभी ड्रैगन की पूँछ
या कोई लेटी हुई लड़की
कभी कई चेहरों का
झुण्ड बनने लगता है.
ऐसी आकृतियों को बनाकर
मन खुश होने लगता है,
किसी ने सोचा न होगा,
सोच के मुस्काने लगता है.
तभी एक चील जब
गोल-गोल घूमने लगती है,
तो न जाने क्यूँ
यूँ डर –सा लगता है,
मेरी आँखों को ही
नोचने आ रही होगी,
मेरे खवाबों को अंधे होने का
भ्रम- सा लगता है.
तेज धूप में जब गालों में
कंपन होने लगती है,
चील वाला भय भी
तब कहीं भाग जाता है.
छाँव के पीछे सूरज रख
बैठती हूँ तो हाथों में
बालू खेलने लगते है.
फिर दूर से ही
माँ की आवाज़ आती है.
मन उठ कर फिर
घर की ओर चल देता है.
चील, लड़की, बुढ्ढा, ड्रैगन
सभी गायब होने लगते है.
माँ की आवाज़ जैसे
सब सुन लेते है.
25 comments:
अहसासों का बहुत अच्छा संयोजन है ॰॰॰॰॰॰ दिल को छूती हैं पंक्तियां ....शब्दों को चुन-चुन कर तराशा है आपने .......प्रशंसनीय रचना।
Maa ki har awaz humare liye khuda ki awaz ke smaan hai......jise sunte hi hum khiche chale aate hai
लिल्लाह .....
अजी माँ के बारे में कितना लिखना सब तो कम ही पड़ जाता है...
वैसे बिलकुल ही नया ढंग है आपका...पहले आसमान में ड्रैगन दिखाए और फिर अचानक माँ की आवाज़ आ गयी अब उनकी आवाज़ के आगे यह सब तो हम भूल ही जायेंगे न...
क्या क्या बदल गया है ....
आज मुझे आप का ब्लॉग देखने का सुअवसर मिला।
वाकई आपने बहुत अच्छा लिखा है। खासकर आप का ब्लॉग टेम्पलेट मुझे बहुत भाया.
आप की रचनाएँ, स्टाइल अन्य सबसे थोड़ा हट के है...
आशा है आपकी कलम इसी तरह चलती रहेगी.
बधाई स्वीकारें।
आप मेरे ब्लॉग पर आए और एक उत्साहवर्द्धक कमेन्ट दिया, शुक्रिया.
आप के अमूल्य सुझावों और टिप्पणियों का 'मेरी पत्रिका' में स्वागत है...
यानि की बादलों में शक्लें देखना........ तुम भी कल्पना के घोड़े दौडाती ही ....मैंने भी बहुत से चित्र देखें हैं बादलों में ....
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ...
Pyari kavita.. bhale papa ki daant se lage na lage, maa k laad dular se to dar lagta hi h :)
बेहद खूबसूरत ख्यालात्।
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (9/12/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
भई....कविता तो बेशक अच्छी है.....और ये भी अच्छा हुआ कि माँ की आवाज़ सुनकर सभी चले गए....तभी तो मैं यहाँ घुस पाया....मगर ये जो तुमने ब्लॉग पर तुमने ऊपर-ही-ऊपर जूते जो लगा रागे हैं....उन्हें तो हटाओ भई....हम कोई हुटिंग-वुटिंग नहीं करेंगे.....बस कविता को अच्छा कह कर चले आयेंगे....मगर इन जूतों को हटा लो....दर लगता है यार.....!!
सही है... समझ नहीं आता कि माँ कैसे सब सुन लेती है...
बहुत प्यारी कविता....
आभार सबों का.
@वन्दना जी चर्चा मंच में पोस्ट को शामिल करने के लिए बहुत धन्यवाद.
ऐसे ही नहीं 'अपि स्वर्णमयी लंका' में लखन ने कहा :
' जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी' !
सुन्दर प्रयास ! आभार !
मेरा नया बसेरा.......
मन को छू लेने वाली कविता लिखी है आपने। बधाई।
आदत.......मुस्कुराने पर
हादसों के शहर में ,
नई पोस्ट पर आपका स्वागत है
dekha vandan ji...Maa ki avaz thi..
so kavita dobara padhne aana padha..
.........maa ki avaaz matlab khuda ki avaaz
अहसासों का बहुत अच्छा संयोजन है|बेहद खूबसूरत ख्यालात्।
dil ko chho lene wali post
फिर दूर से ही
माँ की आवाज़ आती है.
मन उठ कर फिर
घर की ओर चल देता है.
चील, लड़की, बुढ्ढा, ड्रैगन
सभी गायब होने लगते है...
बहुत खूब ... माँ के एहसास में ही इतना दम है ... उसके साथ हों तो दुनिया ही जीती जाती है ....
:-) saade shabdon mein zindagi ke ek bahut khaas rishte ko yun asaani se bayaan kar diya.. wah!
आश्वस्ति और सुरक्षादात्री माँ-एक कम्फर्ट जोंन -बहुत ही उम्दा प्रस्तुति! वैसे बेतरतीब दृश्यों में कोई चेहरा पहचानना पेरिडोलिया कहलाता है :) (संदर्भ :http://en.wikipedia.org/wiki/Pareidolia )
फिर दूर से ही
माँ की आवाज़ आती है.
मन उठ कर फिर
घर की ओर चल देता है.
चील, लड़की, बुढ्ढा, ड्रैगन
सभी गायब होने लगते है.
माँ की आवाज़ जैसे
सब सुन लेते है
bahut khoob
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ...
माँ की आवाज़ जैसे
सब सुन लेते है..
बहुत ही गहरे अहसास..बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति..बधाई
@संजय: दोबारा चले आने के लिए तो माँ का धन्यवाद कहना पड़ेगा. अच्छा लगा आप इतना समय देते है.
@शेखर: हाँ अब समझ में आ रहा है, कि आप बचपन कानमचोढ़ा बहुत मिला है. joking only!
@रवि जी: ब्लॉग में आने के लिए धन्यवाद. और आपके यहाँ तो आना लगा ही रहेगा. फोलो जो कर लिया है.
@संगीता जी: चलिए मैं अकेली नहीं हूँ.ये जानकर अच्छा लगा कि आप भी किया करते हो, कल्पनाओं को उड़ान देने की कोशिश. वैसे अभी भी करते है? मैं तो अब भी करती हूँ.
@मोनाली: माँ ही तो है जिनके आँचल में आके बाकि सब डर छू हो जाते है.
@वन्दना जी: बहुत धन्यवाद!
@राजीव जी: जूतों से क्या डरना! बस एक बार कह दीजियेगा, माँ को बुलाए क्या? देखिये फिर जूते कैसे चुपचाप किनारे होकर रहेगे. वैसे ये आपको डराने के लिए बिलकुल भी नहीं है. आप जब चाहे आईये स्वागत है आपका.
@पूजा: ये तो माँ ही जाने. मगर अच्छा भी है न माँ सब सुन लेती है तो! कितनी बातें कहें कैसे वाली भी तो होती है न!
@अमरेन्द्र जी: बड़े दिनों के बाद यह पंक्ति सुनने को मिली. मन खुश कर दिया आपने.
@शेखर! नोट कर लिया है आपका ब्लॉग, फिर से वैसे ही सुन्दर ब्लॉग बना डालिए. बाकी हम सब तो इंतज़ार में है ही.
@ patali जी, अना जी: धन्यवाद आपका.
@नासवा जी: आपकी बातों से पूरी तरह से सहमत.
@गुडिया जी, मासूम जी, परमजीत जी व कैलाश जी: बहुत शुक्रिया पसंद करने के लिए.
@अरविन्द जी: ये वर्ड याद कर लिया है. अच्छी जानकारी दी आपने.
माँ की आवाज कौन न सुने भला?
सुन्दर कविता...बधाई हो.
सत्यम जी, अविनाश जी , धन्यवाद आपका!
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