Friday, August 20, 2010

A memory of good time.....


इन वादियों में मन खुद बंध कर रह जाता है,
या कुछ जकड़न बहुत दूर तक साथ निभाती है;
चलो आज फिर बाँध दो मुझे इन वादियों के संग,
मुझे इन सबकी याद अब बहुत सताती है.

Thursday, August 19, 2010

रात के चार बजे

घडी देखती हूँ तो पता चलता है
कि सुबह के चार बजे है सबके लिए
और मेरे लिए रात के चार बजे.

कितना अंतर आ जाता है?
समय सबके लिए एक जैसा नहीं होता,
ये अब समझ में आता है.

खिड़की के कोने पर सिर टिकाये
दूर-दूर तक आवाजों को जान-बूझ के
समझने की कोशिश;
एक पागलपन की हद को
दर्शाने की पागलपनी.

सोचती हूँ कहाँ तक ले जाएगी,
मुझे ये अँधियारे का गलियारा;
शायद यहीं पर, जहाँ से मैं इस
राह पे चलने को हूँ उतारू.

सुट्टे पे कभी ज़िन्दगी शुरू
नहीं की जा सकती है,
यह बात समझने की अब
मेरी समझ नहीं रही.

गलत-सही क्या है?
क्या है खुश रहने के नियम?
भूल गई मैं जीवन के सारे सरल समीकरण,
जबसे पड़ा जीवन पे मेरे
तुम्हारा पहला व आखिरी कदम.

जीना है यह जानते हुए
सारे निर्धारित कर्म किए जा रही हूँ,
अब मैं भी औरों की तरह
राज़ी-ख़ुशी जिए जा रही हूँ.

थोड़ी देर में आकाश में
सूरज चमकने लगेगा,
लोगो को नई किरणें देने के लिए;
और मैं आँखें बंद कर
उसमें छिपे अँधेरे से
पूछूँगी आगे का रास्ता.

मन के सन्नाटे से एक गीत
आज फिर कोई गुनगुनाता है,
-- " ज़िन्दगी से डरते हो,?
ज़िन्दगी तो तुम भी हो, ज़िन्दगी तो हम भी हैं.
आदमी से डरते हो?
आदमी तो तुम भी हो, आदमी तो हम भी हैं. "

अचानक एक फाँस-सी
अटकती है गले के बीच,
तुम जैसे धुआँ बन के
खाँसने लगते हो मुझमे.
" लौट जाओ अब तुम भी
यथार्थ में "-- यह कहने लगते हो.

Tuesday, August 17, 2010

अब मैं तुम्हे कागज़ में लिपटे तम्बाकू की तरह.....

अब मैं तुम्हे कागज़ में लिपटे
तम्बाकू की तरह रखा करती हूँ;
तुम्हें याद करने की कोशिश में
कई बार तुम्हे सुलगाया भी करती हूँ.

सोचती हूँ, शायद इसी तरह
कभी तो तुम मुझे पढ़ लोगे;
हर कश में तुम्हें अब मैं
धुआँ बना कर निगला करती हूँ.

तुम अब भी वैसे ही हो,
तुम अब भी नहीं बदले;
तुम अब भी मुझे पढ़ कर
वापस लौट जाया करते हो.

इस बात को समझे कोई कैसे,
कैसे मान लूँ तुम मेरे लिए नहीं हो?
तुम जल के भी मेरे हाथों में
अपने नाम की रेखा खींच मुस्कुराते हो.

तुम जैसे भी हो मेरे जीवन में,
अस्तित्वहीन होकर भी एक कहानी रचते हो;
कोई नहीं तेरा मैं - कहते हो,
और फ़िर अनजानों-सा रिश्ता भी बनाते हो.

मगर रिश्तों में पूर्ण-विराम शायद
लिखना भूल गया वो लिखनेवाला;
कभी खुद को तो कभी तुमको जला के
जाने कौन-सी अंतिम स्याही बनाया करती हूँ?

अब मैं तुम्हे कागज़ में लिपटे
तम्बाकू की तरह रखा करती हूँ;
तुम्हें याद करने की कोशिश में
कई बार तुम्हे सुलगाया भी करती हूँ.