Tuesday, August 17, 2010

अब मैं तुम्हे कागज़ में लिपटे तम्बाकू की तरह.....

अब मैं तुम्हे कागज़ में लिपटे
तम्बाकू की तरह रखा करती हूँ;
तुम्हें याद करने की कोशिश में
कई बार तुम्हे सुलगाया भी करती हूँ.

सोचती हूँ, शायद इसी तरह
कभी तो तुम मुझे पढ़ लोगे;
हर कश में तुम्हें अब मैं
धुआँ बना कर निगला करती हूँ.

तुम अब भी वैसे ही हो,
तुम अब भी नहीं बदले;
तुम अब भी मुझे पढ़ कर
वापस लौट जाया करते हो.

इस बात को समझे कोई कैसे,
कैसे मान लूँ तुम मेरे लिए नहीं हो?
तुम जल के भी मेरे हाथों में
अपने नाम की रेखा खींच मुस्कुराते हो.

तुम जैसे भी हो मेरे जीवन में,
अस्तित्वहीन होकर भी एक कहानी रचते हो;
कोई नहीं तेरा मैं - कहते हो,
और फ़िर अनजानों-सा रिश्ता भी बनाते हो.

मगर रिश्तों में पूर्ण-विराम शायद
लिखना भूल गया वो लिखनेवाला;
कभी खुद को तो कभी तुमको जला के
जाने कौन-सी अंतिम स्याही बनाया करती हूँ?

अब मैं तुम्हे कागज़ में लिपटे
तम्बाकू की तरह रखा करती हूँ;
तुम्हें याद करने की कोशिश में
कई बार तुम्हे सुलगाया भी करती हूँ.

17 comments:

M VERMA said...

तम्बाकू की तरह रखना और
गाहे बगाहे सुलगाना ...
बहुत खूब .. अलग सा बिम्ब

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

पसंद करने के लिए शुक्रिया वर्मा जी..

वाणी गीत said...

तम्बाखू की तरह कागज़ में रखना
गाहे- बगाहे जलाना ...
बड़ा खतरनाक ख्याल है ...
अनूठा है ....!

स्वप्न मञ्जूषा said...

अब मैं तुम्हे कागज़ में लिपटे
तम्बाकू की तरह रखा करती हूँ;
तुम्हें याद करने की कोशिश में
कई बार तुम्हे सुलगाया भी करती हूँ.

कागज़ में रखने तक तो ठीक है ...लेकिन तम्बाखू की तरह ?
और फिर सुलगाना भी ?

mai... ratnakar said...

kya baat hai!! bahut achchha likha hai, yeh pankti to chhoo gaee
मगर रिश्तों में पूर्ण-विराम शायद
लिखना भूल गया वो लिखनेवाला;
कभी खुद को तो कभी तुमको जला के
जाने कौन-सी अंतिम स्याही बनाया करती हूँ?

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

वाणी जी, मंजूषा जी और रत्नाकर जी आप सबो का हार्दिक अभिनन्दन है मेरे ब्लॉग में. वाणी जी खतरनाक ख़याल तो है मगर बरबस आ जाते है अब तो, इसलिए अब इनसे भी डर नहीं लगता. मंजूषा जी मन की आंच जब ज्यादा होने लगती है तो सब कुछ जलता ही है बस. फिलहाल के लिए जलाने का तरीका बदल लिया है मैंने. रत्नाकर जी मुझे भी यही पंक्तियाँ अच्छी लगती है. आपको भी अच्छी लगी जानकर ख़ुशी हुई.

संजय भास्‍कर said...

कागज़ में रखने तक तो ठीक है ...लेकिन तम्बाखू की तरह ?
और फिर सुलगाना भी ?

संजय भास्‍कर said...

सूक्ष्म पर बेहद प्रभावशाली कविता...सुंदर अभिव्यक्ति..प्रस्तुति के लिए आभार जी

संजय भास्‍कर said...

करते है साक्षर ही अधिक भ्रूण हत्या ...............!
vandaan ji plz visit

एक बेहद साधारण पाठक said...

बहुत ही हिंसक , भयानक, और अनूठी रचना है
क्या ये आपने खुद लिखी है ??[इस प्रश्न को अन्यथा न लें ]
बड़ी गहराई में बैठ कर बनाई गयी लगती है ये रचना
सुन्दर तो नहीं कहूँगा पर प्रभावी है :))

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

गौरव जी क्या सही में ये इतना हिसंक और भयानक है? मैंने तो इसे इस तरह से लिखा जैसे अब मेरे बस में कुछ भी नहीं है सिवा खालीपन के. खाली मन में शायद ऐसे ही भाव उपजते है. वैसे इसे मैंने ही लिखा है.

एक बेहद साधारण पाठक said...

हा हा हा

देखिये मेरे लिए ये नजरिया एकदम नया है इसिलए "अनूठा" कहा है
किसी को तम्बाकू की तरह याद करना मुझे तो डराता है
अक्सर गुलाब की सूखी पत्तियाँ, समय के प्रभाव से पीले हो गए कागज़ तो फिर भी एक सात्विक छवि बनाते है
आपने तो सुलगा भी दिया , अब जो यादों का धुंआ उठेगा वो शरीर के स्वास्थ्य को नुक्सान भी पहुंचाएगा " इसलिए भयानक और हिंसक " कहा है

पर एक बात से इनकार नहीं किया जा सकता की इतनी क्रिएटिव सोच को मेरा सकरात्मक या नकरात्मक रूप से देखना कुछ ठीक नहीं लगता

इतनी गहरी बात कही है आपने इसलिए एक बार पूछना जरूरी समझा की ये आपने ही लिखा है या नहीं , मैं पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ इसलिए इस सवाल को पूछने से रोक नहीं पाया

...... कुल मिला कर मुझे इस रचना को पढ़ कर प्रसन्नता ही हांसिल हुई है

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

कुछ यादें पीढ़ा ही देती है, उन्हें याद करके साँसें फूलने लगती है. ऐसे में सुट्टा और धुआँ ही याद आता है , शब्दों की जगह लेने में. शरीर और मन दोनों के लिए ही हानिकारक है ये यादें. मगर ऐसा भी नहीं है, पूरा सच ये भी नहीं है. ये यादें अच्छी भी लगती है, तभी तो अब तक रखा है सम्भाले हुए.

एक बेहद साधारण पाठक said...

@कुछ यादें पीढ़ा ही देती है, उन्हें याद करके साँसें फूलने लगती है
@ये यादें अच्छी भी लगती है, तभी तो अब तक रखा है सम्भाले हुए

ये तो मन की उलझन है , मन ने ये घटनाएं नोटिस कर ली है , वो दोहरा कर हमें परेशान करता है [ मेरे अनुसार यही सच है ]
मन की उलझाई हुई गुथ्थियाँ सुलझा पाना हम सभी के लिए संभव सा प्रतीत होता है [ मैं उन लोग से सहमत नहीं, जो कहते है की नारी का मन कोई नहीं पढ़ सकता ... सच ये है की मानव ( स्त्री पुरुष दोनों) का मन कोई नहीं पढ़ सकता ]
सच तो यह है हम तो अपना जीवन ठीक से जी ही नहीं पाते मन ही पूरा जी लेता है
हमें याद रखना चाहिए हम मन नहीं है हम मन के स्वामी हैं , और हाँ सत्य में कभी अधूरापन नहीं होता सत्य सिर्फ पूर्ण सत्य ही होता है.

एक बेहद साधारण पाठक said...

[सुधार ] मन की उलझाई हुई गुथ्थियाँ सुलझा पाना हम सभी के लिए असंभव सा प्रतीत होता है

escaping2nowhere said...
This comment has been removed by the author.
Rahul Ranjan Rai said...

Wow.... much-2 better than mine ...
great job...