कि सुबह के चार बजे है सबके लिए
और मेरे लिए रात के चार बजे.
कितना अंतर आ जाता है?
समय सबके लिए एक जैसा नहीं होता,
ये अब समझ में आता है.
खिड़की के कोने पर सिर टिकाये
दूर-दूर तक आवाजों को जान-बूझ के
समझने की कोशिश;
एक पागलपन की हद को
दर्शाने की पागलपनी.
सोचती हूँ कहाँ तक ले जाएगी,
मुझे ये अँधियारे का गलियारा;
शायद यहीं पर, जहाँ से मैं इस
राह पे चलने को हूँ उतारू.
सुट्टे पे कभी ज़िन्दगी शुरू
नहीं की जा सकती है,
यह बात समझने की अब
मेरी समझ नहीं रही.
गलत-सही क्या है?
क्या है खुश रहने के नियम?
भूल गई मैं जीवन के सारे सरल समीकरण,
जबसे पड़ा जीवन पे मेरे
तुम्हारा पहला व आखिरी कदम.
जीना है यह जानते हुए
सारे निर्धारित कर्म किए जा रही हूँ,
अब मैं भी औरों की तरह
राज़ी-ख़ुशी जिए जा रही हूँ.
थोड़ी देर में आकाश में
सूरज चमकने लगेगा,
लोगो को नई किरणें देने के लिए;
और मैं आँखें बंद कर
उसमें छिपे अँधेरे से
पूछूँगी आगे का रास्ता.
मन के सन्नाटे से एक गीत
आज फिर कोई गुनगुनाता है,
-- " ज़िन्दगी से डरते हो,?
ज़िन्दगी तो तुम भी हो, ज़िन्दगी तो हम भी हैं.
आदमी से डरते हो?
आदमी तो तुम भी हो, आदमी तो हम भी हैं. "
अचानक एक फाँस-सी
अटकती है गले के बीच,
तुम जैसे धुआँ बन के
खाँसने लगते हो मुझमे.
" लौट जाओ अब तुम भी
यथार्थ में "-- यह कहने लगते हो.
8 comments:
बहुत भावपूर्ण रचना. नियमित लिखें.
तारीफ के लिए हर शब्द छोटा है - बेमिशाल प्रस्तुति - आभार.
...वह तोड़ती पत्थर !....सूर्यकांत त्रिपाठी ' निराला ' जी के संकलन "अनामिका " से ये कविता आप तक
jaroor pade vandana ji
सराहना के लिए धन्यवाद.
बहुत भावपूर्ण रचना...!
गलत-सही क्या है?
क्या है खुश रहने के नियम?
भूल गई मैं जीवन के सारे सरल समीकरण,
जबसे पड़ा जीवन पे मेरे
तुम्हारा पहला व आखिरी कदम.
बेहतरीन भाव .. सारी पंक्तिया बेहतरीन हैं
इसमें भी सुट्टा और धुंआ है
अब ये चीज मुझे सोचने पर मजबूर करती है की आप किसी ऐसे माहौल में अपनी क्रिएटिव रचनाएं बनाती हैं जहां संभवतया प्राक्रतिक सौन्दर्य के कमी है
अगर ऐसा है तो एक प्रयोग करें किसी ऐसी नयी जगह पर सोचें और लिखें , मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि आप सी रचनात्मकता हर किसी के पास नहीं होती
अगर आपको ये पढ़ कर क्रोध जैसे भाव आयें तो मुझे अबोध , अज्ञानी पाठक समझ कर क्षमा कर दें , आपको कमेन्ट डिलीट करने का भी अधिकार है
क्रोध तो नहीं मगर हँसी आ रही है, आप जैसा इतना अच्छा सलाहकार आज तक नहीं मिला. ये बात तो सही कही आपने. अपने हॉस्टल के रूम में अकेले बैठे-बैठे creative writing नहीं हो सकती. मगर प्राकृतिक सौंदर्य की बात जहाँ तक है, सब चारों तरफ बिखरें पड़े है. शायद मन की आँख कमज़ोर हो गई है, आप के शब्दों को चश्मा बनाकर इन्हें देखने से शायद मुझे ये अच्छी तरह से दिख पाएँ? आपके बहुमूल्य कमेंट्स के लिए आभार!
बिलकुल सही बात कही आपने.
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