Friday, September 23, 2011

पूर्ण होने का भ्रम


आशाओं से दूर छिटक कर,
बैठा होगा कहीं मेरा अंतर्मन,
मैं जब भी ढूँढती हूँ कोने में
दुबका-सा मिल तो जाता है.

नहीं मिलता तो बस एक अहसास,
हर बंदिशों, जिम्मेदारियों से
स्वतंत्र होने का अहसास जो
मेरे मन को पूर्ण होने का भ्रम दे.

ताकि मैं उस अहसास के साथ
पीछे छूट जाने वाले एवं
आगे समय में अनायास ही
जकड़ लेने वाले भयपाश
से पूर्णत: मुक्त हो सकूँ.

और मैं जैसे शून्य में गिरती रहूँ,
अनंत समय के उस पार तक.
जीवंतता के अहसास से भी परे,
मैं जैसे किसी महाशून्य को
महसूस करूँ अपने पेट के भीतर.

और जब भी मैं पलकें खोलूं तो
मेरी बाहें स्वत: खुल जाएँ,
हर मोहपाश से पुन: जुड़कर
अपना जीवन धर्म निभाने के लिए.

11 comments:

Yashwant R. B. Mathur said...

और मैं जैसे शून्य में गिरती रहूँ,
अनंत समय के उस पार तक.
जीवंतता के अहसास से भी परे,
मैं जैसे किसी महाशून्य को
महसूस करूँ अपने पेट के भीतर.

गजब का लिखा है आपने।

सादर

संजय भास्‍कर said...

सवेदनाओं से भरी मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति

संजय भास्‍कर said...

वन्दना जी, आपकी कविता पढ़कर मन अभिभूत हो गया.......भावपूर्ण अच्छी प्रस्तुति

Unknown said...

ताकि मैं उस अहसास के साथ
पीछे छूट जाने वाले एवं
आगे समय में अनायास ही
जकड़ लेने वाले भयपाश
से पूर्णत: मुक्त हो सकूँ.

भावपूर्ण प्रस्तुति !

Vandana Singh said...

bahut khoobsoorat .antarman ki kashmash ko bakhobi sameta hai :)

abhi said...

रे लड़की...तुमसे जलन होता है रे..इतना सुन्दर कैसे लिख लेती हो तुम?

प्रवीण पाण्डेय said...

पूर्ण होने का भ्रम ही सही, पूर्णता की छाया तो है।

M VERMA said...

अंतर्द्वन्द की सुन्दर रचना

Anupam Karn said...

ताकि मैं उस अहसास के साथ
पीछे छूट जाने वाले एवं
आगे समय में अनायास ही
जकड़ लेने वाले भयपाश
से पूर्णत: मुक्त हो सकूँ.
भावपूर्ण....

SANDEEP PANWAR said...

बेहतरीन

Amrita Tanmay said...

बढ़िया लिखा है..यूँ ही लिखती रहे.. बहुत अच्छी रचना.