Sunday, February 8, 2009

अजन्मा कर्म....



मेरी सोच को कोई लगाम दे दे,
ये बहुत दूर तक चला जाता है.
इसके सिवा भी तो मेरा कोई नहीं,
और अकेला मन बड़ा ही घबराता है.
अभी कल ही तो मेरे भाग्य
से लड़ के आया है.
जीवन के बही-खाते में हुई गड़बडी पर
काफी रोष जताया है.
रूष्ट है विधि के लेख से अब ये,
जो वर्षों पहले ही लिख दिया जाता है.
कहता है, कर्मों से बढकर
कोई और लकीर नहीं होती.
मगर इससे भी तो बड़ी
कोई और जंजीर नहीं होती.
ढूढता फिर वो उस अजन्मे कर्म को,
जिसकी स्याही मेरे खाते में
इतनी उलट-पुलट कर जाता है.....

2 comments:

wats the need said...

Nice post. Nice thoughts but u write in a mixed style it seems, trying to fit in some lai in open style. May be u can fit in more lai but overall I enjoyed the thoughts. Keep on. :)

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

thanx for ur nice comments... i ll try to follow ur tips....