आज बारिश हुई है;
बहुत दिनों के बाद
मेरे आँखों में ठंडक-सी पड़ी है.
गीली मिट्टी की सोंधेपन में
रिश्तों-सी बू आ रही है शायद.
पर रिश्तें मिट्टी के तो नहीं होते?
फिर भी कितनी शक्लें
अख्तियार कर लेते हैं न,
ये रिश्तें-मिट्टी के जैसे.
क्यूँ लोग बदल जाते है,
और कैसे रिश्ते मिट्टी में बदल जाते है.
प्यार से मेरे गुंथा हुआ था ये,
समाजरूपी चाक में दरारें फिर भी पड़ ही गई.
समय की आंच में ठीक से पका नहीं था शायद,
इक ठोकर में ही ढेर हो गई.
मिट्टी की थी न,
मिट्टी में ही मिल गई.
3 comments:
I like your poems. I have added your blog on my list! :)
thanx!!!:-)
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