कुछ दिनों से हवाओं में कुछ नशा सा है,
कारण पूछा तो बादलों में तस्वीर तुम्हारी ही दिखने लगी.
ऐसा क्यूँ होता है, खुद पे हंसी मैं,
दर्पण में तुम और भी गहरे होते गए, मैं कहीं पिघलने लगी.
क्यूँ आये तुम इतनी देर से, कहाँ थे अभी तक तुम?
जाने क्या-क्या शिकायत मुझे अब तुमसे होने लगी.
चले आओ मेरी आवाज़ सुन के या आ जाऊँ मैं सब छोड़ के,
पल-पल में तुम्हारे छिन जाने के ख्याल से अब मैं डरने लगी.
तुम मेरे ही हो, ऐसा सोचने का क्यूँ मन करता है,
क्यूँ तुम्हारे ख्यालों में अब मैं सिर्फ तुम्हारी ही बनने लगी.
हाँ तुम ही हो मेरे सपनों के राजकुमार! जिसकी खुशबु
अब मेरे मानस-पटल से उतर कर मेरे इर्द-गिर्द बिखरने लगी.
1 comment:
बहुत उमंग भरी रचना है, सुखद है।
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ना लाओ ज़माने को तेरे-मेरे बीच
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