Thursday, September 30, 2010

कुछ फोटो पिंडारी ग्लेशियर ट्रिप के:


















बेबा .....

“ बेबा .............मेरा मूड ठीक नहीं है. तुम जल्दी आओ, अभी के अभी.”
फोन के दूसरी तरफ से आवाज़ आई-- “ बेबा, अभी तो ११ बजने में टाइम है. और मुझे नहाना भी है. वैसे मूड क्यूँ खराब है? क्या हुआ बेबा? कोई मेल-वेल आया है क्या?”
“ नहीं कुछ नहीं.... मगर मैं कुछ नहीं जानती. ११ बजे तक वेट नहीं कर सकते. अच्छा तुम नहा कर जल्दी-से १५ मिनट में पहुँचो. हम्म ..... मैं भी नहा लेती हूँ. आज गर्मी बहुत है. ओके?”
“अच्छा बेबा ! मैं आने से पहले एक मिस कॉल कर दूँगा. तुम निकल जाना फिर.”-- उसने कहा.
“ठीक है’-- इतना कहते ही उसने भी फोन रख दिया था. मैं भी नहाने चली गयी.

मुझे ज्यादा समय नहीं लगा था. तैयार होके मिस कॉल का इंतज़ार करने लगी. इतना समय काफी था, सोच में डूब जाने के लिए. उससे मिले हुए बस कुछ महीने ही हुए है. अब भी याद है जब मैंने अपने रिसर्च से और किसी और से भी भागने के लिए कॉलेज के तरफ से ले जानेवाले पर्वतारोहण में अपना भी नाम बढ़-चढ़ दे दिया था. ऐसे तो कहने को यहाँ लड़कियां लड़कों के बराबर चला करती है. मगर पर्वतारोहण के नाम पर मैं ही अकेली जिमखाना गई थी, फिटनेस टेस्ट के लिए. मुझे अकेला देख एक सदस्य ने तो मुझसे न कहलवाने के लिए समझाना भी शुरू कर दिया. पर मैं तो मैं ही थी-- “ नहीं मुझे जाना है तो जाना है, आप अपना देख लो , मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं है, चाहे मैं अकेली लड़की ही क्यूँ न हो.”- ऐसा कह कर मानो मैं कोई भूचाल की घोषणा कर आई थी. मैं रोज फोन करके उन्हें पुछा करती थी कि मुझे सेलेक्ट किया गया है कि नहीं?. पर्वतारोहण के दो दिन पहले मैंने अपनी एक खास सहेली से अनजाने में ही पूछा कि वो चलेगी मेरे साथ, चूँकि वो एकदम छुई-मुई थी, इसलिए उससे हाँ की उम्मीद न के बराबर ही थी- मेरे पूछने से पहले की उम्मीद. उसकी ‘हाँ’ के बाद तो बाकी सब भी राज़ी हो गए. और आनन-फानन में हमदोनों ने अच्छी-खासी खरीददारी कर डाली.

जब हम बस के पास पहुचे जो हमें रेलवे स्टेशन तक पहुँचानेवाली थी, तो सबसे लेट-लतीफ़ हम ही थे. सारे बी.टेक. के फर्स्ट और सेकेंड इयर के छात्र नज़र आ रहे थे. उनमें से कई सिर बस की खिड़कियों के बाहर दिख रहे थे, कुछ की नज़रें मुझे जानी हुई-सी लग रही थी ( शायद उनमें-से कईयों को मैंने इंजीनियरिंग ड्राईंग पढाया था ) और हम रस्सियों ( ट्रेक के बाद ही हमें यह ज्ञानार्जन हुआ कि महिला रिसर्च स्कॉलर को ‘रस्सी’ व पुरुष रिसर्च स्कॉलर को ‘रस्सा’ की उपाधि मिलती है. ) की नज़रें उन दो बन्दों को ढूंढ रही थी जिनसे हमारी अब तक की बात-चीत हुई थी ट्रिप के नाम पर. उनमें से एक दिखा भी, मगर कुछ हडबडाया-सा. हमारे पास आ के एक लिस्ट थमा गया सबके नामों की और उनके मोबाइल नंबरों की. ट्रिप के बारे में पूरी बात कर लेने के बाद मैं उससे अंकित के बारे में पूछने लगी. वो मुझे एक पल के लिए हैरान-सा होता हुआ देखा और धीरे-से कहा—“ मैं ही अंकित हूँ.” अब सबके हँसने की बारी थी. अच्छा हुआ! वो उस ट्रिप में नहीं था, क्यूँकि उसके बाद मुझे बहुत शर्म आ रही थी.

मनीष नाम का यह बन्दा उन सबमें सीनियर था, सुपर सीनियर!, चूँकि वो पाँचवें साल का विद्यार्थी था. उसी पर सबकी जिम्मेवारी थी, सो हमारी भी. थोड़ा अकड़ू थोड़ा मिलनसार, कुल मिला के ठीक ही था, उस समय तक.

रेलवे स्टेशन से बाकी लोगों ने भी बातें करनी शुरू कर दी थी. कम-से-कम इंजीनियरिंग ड्राइंग की कक्षा वाले छात्र तो ‘मैम- मैम’ कह के बोलने लगे थे. उसके बाद का सफर भी कम यादगार नहीं था, ज़ोरों की बारिश, लोकल वाली ट्रेन में नो चांस, एक्सप्रेस में टी.टी. की धरपकड़, थोड़ा फाईन भी ;-). फिर हावड़ा में भी आगे की ट्रेन छूटते-छूटते बची थी. पूरी तरह से सामान व्यवस्थित करने के साथ-साथ हम तीनों भी एक-दूसरे को जानने लगे थे—मैं, नीतू और वो, उस समय के लिए तो मनीष ही नाम था उसका.

सोने से पहले उसने मुझसे काफी सारी बातें की, यह भी कि तुम्हारी उम्र क्या है? मुझे हंसी आई थी उसके इस सवाल पर, जिसे पूछते समय उसे कुछ अजीब नहीं लगा था, लेकिन जवाब सुन कर जरूर लगा था-- “क्या???? नहीं .....ओके ....लगता नहीं हैं देखकर.” फिर उसने कहा,--“ पता है, मुझे ऐसा लग रहा है कि ट्रिप अच्छी होनेवाली है.” मैंने भी हामी भरी मुस्कुराते हुए और पूछा--“ ऐसा क्यूँ लगता है?”. “बस लग रहा है.”--और वो कहीं खो गया. मुझे पता था कि वो कहाँ खोने लगा है, मैं भी तो अपनी दुनिया में खो जाया करती हूँ.

उसके बाद हल्द्वानी, फिर बागेश्वर, धाकुरी, खाती और भी कई पड़ाव-- पिंडारी ग्लेशियर तक, जिनमें लगता है अब भी अपने निशान मौजूद होगे, और उन निशानों की मौजूदगी तलाशने को मन दोबारा जाने के लिए मचल उठता है अब भी, अकसर. सबके साथ मस्ती करते हुए मैं एक पल को सब कुछ भूल अपनी नौटंकी बाज़ी शुरू कर देती, जो उम्र का लिहाज़ करना बिलकुल भी नहीं जानती थी, तो दूसरे पल ही किसी को याद कर उन बेजुबां वादियों को उस न याद आने चाहिए वाले का नाम बोलना सिखलाती. “ सीख ले मेरी तरह उसका नाम, वापसी में सुनूंगी जरूर तुम सबसे.”-- यही कुछ बडबडाते हुए मैं फिर आगे बढ़ जाती.

ग्रुप में भी हम तीनों एक साथ हो गए थे. फिर तो पूरी ट्रिप मस्ती की हम तीनों ने. मगर अपनी-अपनी तरह से. जैसे कि --
 “ मुझे यहाँ बैठना है “. तो मन्नू कहता – “ नहीं यहाँ नीतू बैठेगी ”.
“ मुझे और सोना है ”. मैं चिल्ला-चिल्ला के रंगोली के सारे गाने, जितने भी याद होते, सभी को सातों सुरों के अलावे बाकी सभी सुर में अलापती जब तक कि वो जाग न जाता.
“ अरे बाबा, अब चलिए ना, क्यूँ लड़ रहे है इतना? “—ये नीतू थी.

फिर इसी तरह मजे करते हुए ग्लेशियर पहुँचे, ग्लेशियर के मज़े लिए और फिर सब वापस अपने-अपने घरों की ओर चल दिए. मैं और नीतू वापस खडगपुर आ गए थे. मनीष .... नहीं मन्नू, वापसी तक में उसका पुन:नामकरण कर दिया गया था, इंटर्नशिप के लिए पुणे चला गया. फोन पे अकसर कहा करता था कि मिस करता हूँ. और मैं रोज उसे मिस करवाया करती थी ताकि जल्दी से दो महीने बीते और हम फिर से मस्ती करें.

“ आई ऍम ऑसम ”—यह उसका अपना अन्दाजें-बयां था हर बात पर, जिस पर हम खूब हँसा करते थे, मगर वो गंभीरता से ही कहा करता था, जैसे कि सुपरमैन का अपनेआप से सुपरमैन कहना, शायद वैसा ही.

“ हे बेब्स! “—दो महीने के बाद कैम्पस वापस आने पर उसने मुझे देखकर कहा.
“ यक्क्क.....बेब्स मत बोलो.” -- पता नहीं मुझे ये शब्द आज तक कभी कानों सुहाए नहीं.
“ ओके.... हे बेबी! .... ये चलेगा?”-- उससे तो बेहतर है यह सोच को हाँ बोल तो दिए मगर मुझे गलती से बेबी सुनना भी पसंद नहीं था. सोचा आज ही बोलेगा, उसके बाद नहीं. मगर उसके बेबी बोलने का सिलसिला तो जैसे शुरू हुआ था. एक दिन मैंने गुस्से में आकर उसे कह दिया – “ तुम्म्म ..... बेबा.” उसकी प्रश्नवाचक निगाहों को अपनी खुशी के पताके से लहरा के मैंने फिर कहा – “ जैसे मैं बेबी वैसे तुम बेबा.” उसके बाद से तो ‘बेबा’ बोलना ऐसे शुरू हुआ कि वह भी अब मुझे बेबा ही बुलाने लगा है.

उम्र में काफी छोटे होने के बावजूद भी वो मेरा अब अच्छा दोस्त बन चुका है. हालांकि वो अब भी मुझसे बड़ा और ज्यादा समझदार होने के लिए मुझसे झगड़ा, चिल्लाना, बात-बात पर किसी हिमालयन वाले बाबा जैसे महाचिन्तक की तरह मुझे समझाना, सब करता है और फिर भी मेरे चुप रहने पर ‘मुझसे झगड़ा करो न’- की डिमांड करता है. मैं हँस देती कि जाने क्या रिश्ता है?

आज पता नहीं कहाँ से मन में सनक आ गयी कि ये बेबा शब्द दुनिया के अर्थपूर्ण शब्दों की शब्दकोष में जगह रखता भी है कि नहीं? पता नहीं मुझे इससे पहले यह सवाल दिमाग में क्यूँ नहीं आया? गूगल महाराज तो अब सबके देवता बन गए है तो मेरे भी. बस टाइप किया और ज्यादा खोजने की जरूरत नहीं पड़ी. दो ही लिंक मिले काम के, एक में बेबा किसी जगह का नाम था और दूसरा -  Building and Enhancing Bonding and Attachment “, किसी संस्था का नाम था ये. मैं फिर से हँस दी कि यही तो........रिश्ता है ! और जैसे गाना बजने लगा हो, मोबाइल के बजने जैसा.
“ बेबा कॉलिंग ”-- उसका मिस कॉल आता है...........

Sunday, September 26, 2010

खुद से किया एक वादा



खुद से किया एक वादा
रोज तोड़ जाती हूँ,
फिर भी कुछ न कहती हूँ.

भूल जाती हूँ तब
खुद पर भी गुस्सा करना,
क्यूँ उसको फिर कोसती हूँ.

जो एक वादा उसने
न निभाया, तो क्या हुआ?
खुद से कितने तोडती हूँ.

अपने ही बनाये इस 
दोयम दर्जे से हूँ शर्मिंदा भी,
फिर भी उसपे गुस्सा करती हूँ. 

कम अकेली.....


दूर झरोखे से बाहर
मेरे हॉस्टल का एक छत है,
जिसमें मैं अक्सर रात-बे-रात
गोल-गोल घुमा करती हूँ.
उसके पीछे पेड़ों के झुंड से
अक्सर मुझे किसी के
होने का अहसास मिलता है.
मैं जानती हूँ कि ये
मेरा सिर्फ भ्रम भर ही है.
मगर इस भ्रम में ही मुझे
यह अहसास भी मिलता है
कि मैं उस परछाई से
कम अकेली हूँ.

मेरे हिस्से की नींद.....


आँखों से कोसों दूर
मेरे हिस्से की नींद
अब कहीं और सोने लगी है.

लगता है अब मेरी सोच
नुकीली भी नहीं
ज़हर बुझी नश्तर हो चली है.

इस नुकीली बिस्तर पे
सोते-सोते अब
उसकी भी नींद उड़ने लगी है.

पहले तो मेरी मिन्नतें
मान भी लेती थी,
अब वो मिन्नतें करने लगी है.

इसलिए आँखों से कोसों दूर
मेरे हिस्से की नींद
अब कहीं और सोने लगी है.

जाने क्यूँ लोग जिंदगी में आते है?


जाने क्यूँ लोग जिंदगी में आते है?
आके फिर कभी न
आने के लिए चले जाते है;
मेरी तन्हाई को
और भी तनहा कर जाते है;
चार दिन की जिंदगी थी उसको भी
अंतहीन लम्बाई तक खींच चले जाते है.
जाने क्यूँ लोग जिंदगी में आते है?

Friday, September 24, 2010

जीतूँ कैसे?


करूँ लाख जतन मैं जीतने की,
फिर भी इससे मैं जीत नहीं पाती;
खुद से लड़ती हूँ जब तो जीतूँ कैसे?
मैं खुद को हारने भी तो नहीं देती.

Thursday, September 23, 2010

लुका-छिपी



कई पड़ावों से होकर जब ज़िन्दगी
तुम्हारे पास आई तो
एक बार को लगा था कि-
अब ठहरने की बारी है.

और सही भी तो है,
तुम जैसे मेरे चलनेवाले रस्तों पर
अपनी अंगुलियाँ फेर गए हो;
तुम्हारे निशान अब भी दीखते है,
जैसे मुझे इनकी रखवाली
करने को कह गए हो.

कभी-कभी तो लगता है,
तुम बचपन वाली लुका-छिपी का खेल
फिर से खेला रहे हो;
मुझे छिपने को कह तुम जैसे
चोर बनके ढूँढने आ रहे हो.

काश मैं चोर बनी होती तो
तुम्हें जरूर से ढूंढ लेती;
तुम्हारे इंतज़ार में मैं 
अब तक यहाँ छिपी बैठी नहीं रहती.

बचपन में कभी चोर नहीं बनी थी न,
हर बार मैं बहाने बनाया करती थी;
काश पता होता कि यूँ किसी के
आने का इंतज़ार इतना रुलाता है,
तो हर बार मैं और सिर्फ मैं ही
चोर बना करती.

तुम्हें रुलाने के बारी
याद दिलाने के लिए नहीं,
तुम्हें इस अहसास से कोसों दूर
रख मैं हर बार चोर बनकर कहती
कि बस बहुत हुआ यह खेल,
अब घर को चलते है.

भूलने के तरीके

तुम्हें भुलाने की कोशिश में
मैं कितनी ही कोशिशें कर जाती हूँ;
तुम हर कोशिश में हो मेरी,
मैं हर बार याद ही तो तुम्हें कर जाती हूँ.

दिन को गुजारने के तरीके
अब सीख लिया है मैंने,
रोज़ तारीखों में कटम-कुटुम का
एक नया खेल मैं बना जाती हूँ.

रात मगर अब भी कम होती नहीं,
तारों से बढ़कर टुकड़े पड़े रहते है
बिस्तर में अब भी चुभती है, आँखों में
अधूरे सपनों का सपना भी नहीं मैं ला पाती हूँ.

मेरे हाथों में अब भी तुम्हारी यादों का
खिलौना सोते-जागते रहा करता है;
कभी-कभी मैं इससे खेला करती हूँ,
कभी यह मुझसे खेल जाया करती है.

दूर रेल की भागती-सी आवाजें सुबह तक
मैनों के चहचहाने जैसी लगने लगती है;
तुम्हारी याद में मैं अँधेरे से रोशनी तक
का सफ़र देखते-देखते तय कर जाती हूँ.