मैं कितनी ही कोशिशें कर जाती हूँ;
तुम हर कोशिश में हो मेरी,
मैं हर बार याद ही तो तुम्हें कर जाती हूँ.
दिन को गुजारने के तरीके
अब सीख लिया है मैंने,
रोज़ तारीखों में कटम-कुटुम का
एक नया खेल मैं बना जाती हूँ.
रात मगर अब भी कम होती नहीं,
तारों से बढ़कर टुकड़े पड़े रहते है
बिस्तर में अब भी चुभती है, आँखों में
अधूरे सपनों का सपना भी नहीं मैं ला पाती हूँ.
मेरे हाथों में अब भी तुम्हारी यादों का
खिलौना सोते-जागते रहा करता है;
कभी-कभी मैं इससे खेला करती हूँ,
कभी यह मुझसे खेल जाया करती है.
दूर रेल की भागती-सी आवाजें सुबह तक
मैनों के चहचहाने जैसी लगने लगती है;
तुम्हारी याद में मैं अँधेरे से रोशनी तक
का सफ़र देखते-देखते तय कर जाती हूँ.
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