Friday, December 3, 2010

बर्फ के सिल्ली के उस पार.....

मैं रोज उठती हूँ,
पर दिन चढ़ने के बाद ही,
मेरी दिनचर्या में किसी भी सूरज का
कोई भी योगदान नहीं;
भाग-दौड़, परिश्रम हर प्रक्रिया
केवल मेरे बनाये हुए नियम पर
यथावत पूर्ण या पूर्णता तक पहुँचते रहते है,
इससे समयचक्र का चलते रहने का
भ्रम भी बने रहता है.

पर जब मैं कमरे के भीतर होती हूँ,
तब क्यूँ लगता है कि
मैं इस कमरे से बाहर कब निकली?
खुद को तब किसी मुर्दाघर के
किसी एक खाने में
सोया हुआ पाती हूँ;
तो मैं गौर से देखती हूँ
खुद को उस खाने के भीतर,
जहाँ मैं आराम से लेटी हुई होती हूँ.

मुझे लगता है कि
मैं भयंकर ठण्ड में जमा दी गई हूँ;
या बना दी गई हूँ वो चाबी का गुच्छा,
पापा के दराज से चुराई हुई,
जिसमें एक शंख, कुछ पत्तियाँ, कुछ मोती
कांच के भीतर जैसे मैं जमाई हुई,
या बना दी गई हूँ वह कौतुहल
जो कंचों के भीतर झांकने से
पैदा होता था मेरे अंदर.

वह कौतुहल आज भी
जैसे बर्फ की सिल्ली में कैद-
एक असमर्थ सवाल बन
अपना वजूद तलाशता है;
लोग इसे धीरे-धीरे
मरना – मानते है;
मेरी इच्छानुसार धारण की गई चुप्पी को
हर कोई धीमा ज़हर समझता है.

जब बर्फ की उस सिल्ली के बाहर की
दुनिया से जो भी चीज़
सिल्ली की मोटाई से होते हुए
गर्मजोशी के साथ मेरी ओर आती है;
तब मैं उसकी गर्माहट और
अपने अंत:मन के तापमान में
कोई अंतर नहीं पाती हूँ.

फिर सोचती हूँ, क्या मेरे
अंदर का ठंडापन भी
बाहर निकलते वक्त
उनके लिए भी
‘कोई अंतर नहीं’- बन जाता है?
यह सोचते-सोचते
मैं पूरी रात काट देती हूँगी.

मैं जानती हूँ
दिन-प्रतिदिन मोटे हो रहे बर्फ के भीतर
मेरा वजूद धुंधला होते जा रहा है;
इक दिन ऐसा भी आएगा
जब हाथ फिराने पर भी मुझे
बर्फ की गहराई तक नहीं दिखेगी.

मगर उस वक्त भी मैं
यह जानती हूँगी कि
बर्फ के सिल्ली के इस पार से
गर्माहट अब भी अंदर जाती होगी;
और बर्फ के सिल्ली के उस पार
मैं अब भी रहती हूँगी.

23 comments:

kunwarji's said...

पढ़ते-पढ़ते लगा जैसे कि बर्फ कि सिल्ली में क़ैद सा हो गया.......लेकिन अंतिम पंक्तियों में गर्माहट वापस आई और हाथ टिप्पणी करने की खातिर हिलते महसूस हुए!पर कहे क्या.....दिमाग में तो वही सुन्न है बर्फ की सिल्ली का....!

बहुत खूब लिखा है और बेहतरीन लिखा है...

कुंवर जी,

Anonymous said...

ओह !! काफी भारी भरकम कविता... मुझे २ बार पढनी पड़ी समझने के लिए | :) :)...
ठंड से कांप गया मैं ये कविता पढ़कर... लेकिन आपके शब्दों की गर्माहट ही थी जो मेरा हाथ थामे रही |
बहुत ही सुन्दर रचना...

abhi said...

आप काफी सोचती हैं और काफी संवेदनशील हैं. :)

रश्मि प्रभा... said...

दिन-प्रतिदिन मोटे हो रहे बर्फ के भीतर
मेरा वजूद धुंधला होते जा रहा है;
इक दिन ऐसा भी आएगा
जब हाथ फिराने पर भी मुझे
बर्फ की गहराई तक नहीं दिखेगी.
gahan abhivyakti

Yashwant R. B. Mathur said...

वाह !
बेहतरीन और मर्म स्पर्शी कविता.

The Serious Comedy Show. said...

gahare mantavya hain.shayad kaee baar aur padhanaa pade.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बर्फ के सिल्ली के इस पार से
गर्माहट अब भी अंदर जाती होगी;
और बर्फ के सिल्ली के उस पार
मैं अब भी रहती हूँगी..

आपके मन के अंदर गहन मंत्रणा चल रही है ....

और सच है आज कल के बच्चों ने उगता सूरज कहाँ देखा है ? सब देर तक सोने के आदी होते हैं ....

vandana gupta said...

बर्फ़ की सिल्ली के उस पार बहुत कुछ ऐसा है जो आज भी सिसक रहा है ……………बेहद गहन मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति।

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

@ कुंवर जी: पोस्ट करते वक्त भी यही सोचा था कि कहीं कोई इस ठण्ड का अनुभव न करे ले. आप बस सर्दियों के ठण्ड का मजा लीजिए. बाकी कलम चलाते रहे, गर्माहट बने रहती है.

@ शेखर: शब्दों के कम्बल में आप सदैव सुरक्षित रहे. यही शुभकामना है!

@ अभि: और आप तो जैसे नहीं सोचते है, तो मेरी बातें कौन लिख जाता है. सोचना तो हमेशा लगे रहेगा. फिलहाल सोच रहे है आप अपनी डायरी का कौन सा कीमती पन्ना लगानेवाले हो. हे हे!

@ रश्मि जी: आपका आभार! हमेशा की तरह मुझे पढ़ने के लिए समय निकाला, ऐसे ही आते रहिएगा.

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

@ यशवन्त: शुक्रिया हर बार की तरह प्रोत्साहन के लिए, वह भी इस ठण्ड भरे मौसम में जब मैं आँखें खोलने के लिए सोच रही हूंगी, और आपने अपने हाथों को तकलीफ दिया उस समय.धन्यवाद!

@unkavi जी: बार-बार पढ़ने के लिए बहुत धन्यवाद जी. पर क्या यह इतना अस्पष्ट है? शायद होती होगी, मन की सोच किसके पल्ले आई है?

@ संगीता जी: गहन मंत्रणा कहूँ या कुछ और? शायद कुछ कसकता है हर पल, जो मुझे लिखने को विवश कर देता है. एक बात और कहूँ आप हँसेगी जरूर- साल में एकाध बार जब मैं ब्रेकफास्ट के लिए मेस में पहुँचती हूँ तो सब के सब मुझे अजूबे के जैसा देखते है, हँसते है. आप समझ सकते है, कि लोग सुधरने का मौका भी नहीं देते है. :)

@ वंदना जी: आप आये और कुछ लिख के जाए न ऐसा कैसे हो सकता है? सिसकना तो मुझे भी सुनाई देता है, बस उस दिन का इंतज़ार है जब उस पार से मुझे एक खिलखिलाहट भी सुनाई दे. और मैं इंतज़ार कर रही हूँ. :)

संजय भास्‍कर said...

.....काफी संवेदनशील
अच्छी लगी आपकी शिल्पकारी . मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति।
बहुत ही अच्छी अभिव्यक्ति !

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

संजय जी धन्यवाद.....!

Kunwar Kusumesh said...

बर्फ के सिल्ली के इस पार से
गर्माहट अब भी अंदर जाती होगी;
और बर्फ के सिल्ली के उस पार
मैं अब भी रहती हूँगी..

सुन्दर भावाभिव्यक्ति

Thakur M.Islam Vinay said...

nice

Anand Rathore said...

main ya to turant pratikriya karta hoon ..ya bina samjhe kabhi nahi..

baat jo aapne likhi hai..gar khud samjh sako to samjhna.. shayad meri soch ki koi seema nahi.. koi naap nahi.. isliye jaisa main sochta hoon zaruri nahi sab sochen..

baat bahut gahri hai..na jaane padhne ke baad kaun kya soche aur kis dhang se le..itna important nahi hai..jitna zaruri usse khud samjhna hai...
kai baar jin baaton ko hum mahsoos karte hain khud nahi samjhte..aur na samajhna chahte hain... isliye kabhi kabhi main khud ko maha murkh bhi kahta hoon... aapki poorani post padhi.. koi pratikriya nahi di.. jab sahi javab hoga waqt hoga..de denge...so how is life.. zam gaya hai sab..isse rafta rafta bahne do...

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

Kunwar Kusumesh जी,
Thakur M.Islam Vinay जी, बेहद आभार आपका.

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...
This comment has been removed by the author.
वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

आनंद जी, बड़े दिनों के बाद आपका आना हुआ, कई बार सोचा भी कि आपके ब्लॉग पर जा के पूछ आऊँ.

एक बात जरूर कहना चाहूंगी, आपकी स्पष्टवादिता बहुत अच्छी लगती है. और डर भी. बस यूँ समझ लीजिए आपका लिखा पढ़ने में अच्छा लगता है, और समझने को भी. महसूस करना और समझना कितना अलग है यह आज आपसे कुछ ज्यादा समझ में आ रहा है.

लाइफ कैसी चल रही है? यह बताना थोड़ा कठिन है? सही उत्तर नहीं पता है अभी तक. या जो कुछ मैं कहूँगी कहीं गलत भी हो सकती है. लेकिन इतना जरूर है, जैसी भी है अच्छी है, कुछ कमी है तो शायद मेरी समझ में.

December 4, 2010 4:43 PM

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

बहुत सुंदर कविता ... पहली बार आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा...

Anonymous said...

पहचान कौन चित्र पहेली ...

amar jeet said...

दुनिया से जो भी चीज़
सिल्ली की मोटाई से होते हुए
गर्मजोशी के साथ मेरी ओर आती है;
तब मैं उसकी गर्माहट और
अपने अंत:मन के तापमान में
कोई अंतर नहीं पाती हूँ
बर्फ की ठंडकता ,गर्मजोशी और अंत:मन का तापमान कुल मिलाकर शब्दों के चयन ने रचना में गहराई पैदा कर दी............ .

Anand Rathore said...

samajh ka hi to saara khel hai, aur fir samajh ke manne ka..

aap mein bahut urja hai... kami khalti hai...

kami , kavita ka srijan kar sakti hai.. shaanti nahi la sakti..

ek achcha insaan hone ke naate , aapke jeevan mein main wo dekhna chahta hoon jo blog ki tamaam post mein koi nahi dekhta...jahan ek vandana hai jise shabdo ke peeche koi nahi dekhta..shayad aap bhi usse dekhna bhool gayi hai..kisi din fursat mein apne aapko phir se dhoondh ke dekhiye...

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

@महफूज जी, अमरजीत जी धन्यवाद!

@ आनंद जी: kami , kavita ka srijan kar sakti hai.. shaanti nahi la sakti..

बिलकुल सही कहा आपने. आप मेरे बारे में इतना सोचे यही बहुत है. इसके लिए धन्यवाद कहना कम लगेगा.