Monday, August 31, 2009

सुबह-सवेरे ही.....

सुबह-सवेरे ही
इक सपना देखा था;
रात के अँधेरे में
जैसे कोई अपना रूठा था.

वो जो ऐसे
हाथ में आके फ़िसल गया;
जाना-पहचाना ही था,
फिर-भी जाने कैसे बदल गया?

नमकीन पानी आँखों से होके
जब मन में बहने लगे;
मीठी दरिया थी अन्दर कहीं
सब इस समन्दर में खोने लगे.

अब तो हलक में इतना
कड़वापन-सा लगता है;
झूठ के चाशनी का स्वाद भी
अब फ़ीका-सा लगता है.

जीवन कड़वी सच्चाईयों की बंद
संदूक जैसे बन गई है;
यह मुस्कराहट भी ताले की
जगह जबरन बैठ गई है.

हाँ! सुबह-सवेरे ही
इक सपना टूटा है;
रात के अँधेरे में जैसे
कोई अपना छूटा है.....

Sunday, August 23, 2009

तस्वीर तुम्हारी.....

तस्वीर तुम्हारी आज भी
मन में उकेरती हूँ.
आड़ी-तिरछी नज़रों से तेरी
तेरी ही छवि बनाती हूँ.

थोड़ा प्यार का रंग
पहले उसमें उड़ेलती हूँ.
फिर थोड़े-से नाराजगी से
भी तुमको रँगती हूँ.

चंद खिलखिलाहट भी
तुम्हारी भर देती हूँ.
कुछ चुप्पी तुम्हारी
साँसों में घोल लेती हूँ.

फिर लौ तुम्हारी आँखों की
मन के दीये में सुलगा लेती हूँ.
कुछ सपने अनकहे तुम्हारे
लोरी की भांति सुना देती हूँ.

कुछ क्षण तन्हाई तुम्हारी
तन में लपेट लेती हूँ.
कुछ बूँद तेरी यादों की
तकिये में छुपा लेती हूँ.

हाँ! तस्वीर पूरी करने की
भरसक यत्न करती हूँ.
फिर भी तेरी इक झलक को
पल-पल तरसती हूँ.

Saturday, August 22, 2009

तेरे नैना.....

तेरे नैना
जब भी देखूँ
सोचूँ मैं ये
कि कैसे कहूँ?
सदा के लिए
इन नैनों में ही
मैं छुप के रहूँ.

तेरे नैना
कुछ न कहे
चुप-से ही रहे,
फिर भी देखे
जब भी मुझे
जैसे कहे
अपना ले मुझे.

तेरे नैना
जैसे कोई
भीतर रिसता गहरे
समंदर का पानी,
मन में बहे
जाने कितने
जनमों की कहानी.

तेरे नैना
बड़े ही शरारती
चंचल होकर
करे जब इशारे,
पलकें मेरी
झुकती ही जाये
हाँ! शर्म के मारे.

तेरे नैना
बहुत सताती
रात-रात भर
मुझको जगाती,
आके सपनों में
कहती मुझसे वो
जो कभी कह न पाती.

तेरे नैना.... हाँ .. तेरे नैना....

Thursday, August 20, 2009

बादल भी रोने लगे...........

अचानक तंद्रा टूटी तो देखा
दरवाजे से बाहर,
काले बादल दौड़ते हुए चले आ रहे थे
मेरी तरफ.
कोई अप्रत्याशित घटना
अभी-अभी घटित हुई हो जैसे,
व जिसकी सूचना मुझे देने
बदहवास-से आ रहे हो ऐसे.
मैं भी शंकित-सी, भयभीत-सी
दौड़ के चली गई बरामदे तक,
पूछने को कि क्या हो गया?
कौन-सा आसमान गिर गया?
प्रश्न करूँ इससे पहले ही
ढेर सारी बड़ी-बड़ी तितलियाँ,
जिन्हें हम बचपन में
"हेलीकाप्टर" की संज्ञा दिया करते थे,
बादलों की विपरीत दिशा में
भागे जा रही थी; जैसे
काले भूत को देख लिया हो.
शायद बादल की बदहवासी का
गहरा असर हुआ था उन पर.
मैं चिल्लाई कि क्या हुआ?
मगर दूरी इतनी भी कम न थी
कि वो मुझे समझ पाई
और न ही मैं उत्तर जान पाई.
बस प्रतीक्षा करने लगी कि
वो पास आके दम तो ले ले ज़रा.
इतने में पंद्रह चीलें,
मैंने ठीक से ही गिना था,
आसमान में अचानक से आ गए.
जैसे कि आज ही उनका व्यायाम-सत्र
आरंभ हुआ हो.
कभी इक ही धुरी पर
चकरी बन घूमने लग जाते
तो कभी कतार बना के
जाने किन्हें लुभाते.
ऐसा भी लगा कि
सुनामी आने से पहले की
चेतावनी दे रहे हो.
अब बस कुछ ही पल की दूरी बाकी थी,
मुझमे और बादलों में.
मैं भी भूमिका बाँधने लगी
मन-ही-मन कि पूछूँ कैसे?
होंठ लरजते इससे पहले
बेईमान हवा ऐसी आई
अपने संग बादलों को भी ले गई उड़ा.
अनुत्तरित होकर मन के सारे प्रश्न
जब रोआंसें-से होने लगे.
तब दूर जा के देखा तो
बादल भी रोने लगे.

विश्वासघाती

सवेरे-से कटोरी-भर चावल
रखे थे मैंने,
कोई तो उन्हें चुगने आएगा;
डिब्बे में बंद सड़ रहे थे दाने,
किसी का तो भला हो जायेगा.
पर नहीं..
अब तो मैना मुझसे भी ज्यादा
सयानी हो गई है;
उनकी आंखों में अब अपनों के लिए भी
खौफ़ पैदा हो गई है.
चलो कोई नहीं..
सबकी अपनी इच्छा;
अब तो दुनिया भी ऐसी ही हो चली है,
शायद इसकी कहानी भी यही हो गई है.
सांझ ढलते दो मैना
दिख ही गए, घास में कुछ चुन रही थी वो,
मैंने भी विश्वास का जाल फेंकना चाहा,
सो सारी कटोरी ही उडेल डाली;
डर मत! मैं भी धीरे से
विश्वास का पैबंद लगाने का प्रयत्न कर रही थी.
परन्तु..
उनका विश्वास मुझसे भी अधिक था,
उड़ के चली गई पासवाले बरामदे पर;
और छुप के ढूँढने लगी मुझ नासमझ को
कि इस बार कौन नया विश्वासघाती था.

Wednesday, August 19, 2009

चले आओ.........

कुछ दिनों से हवाओं में कुछ नशा सा है,
कारण पूछा तो बादलों में तस्वीर तुम्हारी ही दिखने लगी.

ऐसा क्यूँ होता है, खुद पे हंसी मैं,
दर्पण में तुम और भी गहरे होते गए, मैं कहीं पिघलने लगी.

क्यूँ आये तुम इतनी देर से, कहाँ थे अभी तक तुम?
जाने क्या-क्या शिकायत मुझे अब तुमसे होने लगी.

चले आओ मेरी आवाज़ सुन के या आ जाऊँ मैं सब छोड़ के,
पल-पल में तुम्हारे छिन जाने के ख्याल से अब मैं डरने लगी.

तुम मेरे ही हो, ऐसा सोचने का क्यूँ मन करता है,
क्यूँ तुम्हारे ख्यालों में अब मैं सिर्फ तुम्हारी ही बनने लगी.

हाँ तुम ही हो मेरे सपनों के राजकुमार! जिसकी खुशबु
अब मेरे मानस-पटल से उतर कर मेरे इर्द-गिर्द बिखरने लगी.