Friday, October 29, 2010

बस यही भ्रम

नहीं चाहते हुए भी
अब लिखना चाहती हूँ,
मैं कलम की स्याही में ही सही,
तुझे ढूँढना चाहती हूँ.

तुझे उम्मीद बनाकर मुठ्ठी में
अपनी भींचना चाहती हूँ,
हाथ की लकीरों को मैं जैसे
अब भी बदलना चाहती हूँ.

फैला के तस्वीरों को बिस्तर में
तुझे टटोलना चाहती हूँ,
मैं सोई नहीं बरसों,
तेरी बाँहों में सिमटना चाहती हूँ.

तुझे इस कदर मैं इस मन में
छुपा कर रखना चाहती हूँ,
होगी सूरत कहीं तेरी कि मेज पर
जमे गर्द को भी सहेजना चाहती हूँ.

जो तुमसे अलग करे मुझे
उस रौशनी को रौंदना चाहती हूँ,
तम में लिख के नाम तुम्हारा
मैं ताउम्र यूँ ही जीना चाहती हूँ.

सुन सकूँ तुम्हें जिस चुप्पी में
उस क्षण को बस रोकना चाहती हूँ.
तुम आज भी वैसे ही हो मेरे,
बस यही भ्रम पालना चाहती हूँ.

Sunday, October 24, 2010

निश्चित्त तौर पर अकेली.....

अब मैं सोचती नहीं हूँ,
अब प्रतिवाद की कोई गुंजाईश भी नहीं है.
अब मुझे हर चीजों को
दो बराबर भाग में बांटना नहीं होता.

लाईब्रेरी में एक कुर्सी अब
अकेली ही रहती होगी.
२.२ का एक चक्कर भी
अकेले पूरा करती हूँ.
और “main building” का वो चबूतरा
मुझे अब भी नहीं पसंद है.

कभी-कभी “टिक्का” में जाकर
एक बड़ी चाय की चुस्की भी ले लेती हूँ.
eggies” में “horlicks” कभी नहीं पीती,
और न ही उस “culvert” में बैठने
की इच्छा भी होती है.

जब-जब कमरे में बैठ के मैं
तंग होने लगती हूँ तो
यह तय करने बाहर निकल जाती हूँ
कि अब मैं निश्चित्त तौर पर अकेली हूँ.






कुछ शब्दों का उचित उल्लेख यहाँ मैं जरूर करना चाहूंगी, ताकी पाठकगण को सही मनोभावों को समझने में सुविधा हो -----


टिक्का: एक स्थान का नाम, जहाँ चाय, समोसे , खाने वगैरह के साथ लोग अपनी व्यस्तता को ब्रेक देने आते है.


eggies: हॉस्टल में रहनेवालों के लिए सबसे बड़ा धाम, रात को जब मेस में खाना मिलना बंद हो जाये, तो रात भर यह जगह खुली रहती है, हम जैसे हॉस्टल में रहनेवालों के लिए. वहाँ जाके अक्सर मैं horlicks पीना पसंद करती हूँ.


२.२: एक गोलाकार रोड का लोकल नामकरण, जिसकी लम्बाई २.२ किलोमीटर है और यह छात्रों के लिए दौड़ने व व्यायाम का आम जरिया बन चुका है.


culvert: मेरे हॉस्टल के सामने ही है, जिसमे मैं घंटों बैठ के सड़क की ओर देखना पसंद करती हूँ.


main building का चबूतरा: इसलिए नापसंद है कि वहाँ पर बैठनेवालों को लोग जोड़े, युगल के रूप में ही देखते हैं.

Saturday, October 23, 2010

लव आज कल - भाग ३

एक वो सागर है, जो सबको दीखता है. लोग तो घूमने भी जाते रहते है, सैंकडों की तादाद में मगर चींटियों के पोशाक में. और यह सब समझने के लिए मैं भी कभी-कभी उन चींटियों का हिस्सा बनकर चली जाती हूँ, उस सागर के पास. उस सागर में कितने ही पत्थर फेंकों, एक का भी जवाब नहीं आता; चाहे किनारे के सारे कंकड-पत्थर खतम क्यूँ न हो जाये. और एक ये मन का सागर है, एक भी ऐसी यादों का कंकड़ नहीं होगा जो इस सागर में फेंकने के बाद भी वापस नहीं आया होगा. हर बार अपनी यादों को डुबोने की कोशिश करती हूँ, हर बार वक्त की लहरों के साथ वह वापस चली आती है. कई बार, और भी 'भूल चुके हुए' कंकड़ फिर-से चोट करने आ जाते है. हाँ, कभी-कभी कोई याद वापस नहीं आती तो सुकून-सा लगता है. मगर जब उस न वापस आनेवाली याद के घुलने से और-भी खारा हो चुका कोई थपेड़ा बिना बताये भिंगो के चला जाता है, तब उसके न वापस आने का मतलब भी समझ में आने लगता है.

आज भी एक लहर ऐसी आई थी, जिसके खारेपन का एक ही कारण था -- उसका बिन-बताये खड़गपुर आ टपकना.

वह भी कोई रविवार का दिन ही था. सहेलियों ने बिग बाज़ार जाने का प्लान बनाया था. हमारे यहाँ खड़गपुर में अभी तक मॉल के नाम पर यही मनोरंजन का साधन है, खासकर गर्मियों में उमस भरी शाम को हम ए.सी. की सुविधा पाने भर के लिए भी यहाँ जाना पसंद करते थे. मैं नहाकर कमरे में आई ही थी कि उसका फोन आ जाता है.

“उल्लू क्या कर रहा है? आज हम फ्री है. ऑनलाइन विडियो चैट करेगा?”—उसकी इस बात को सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आया. आना भी वाजिब था. हुआ यूँ कि कुछ दिनों पहले उसने मुझे जी टॉक पर विडियो चैट के लिए निमंत्रण भेजा था. मैंने आज तक चैटिंग भी इतनी नहीं की थी, जितनी उसके कारण, और ये तो कभी भी नहीं. उसके लिए ही बाज़ार से मैंने १३०० रुपये का वेब कैमरा भी खरीद लायी. मगर उसके बाद उसने कभी फिर पूछा भी नहीं और मैं सोचती रही कि मैंने कोई बेवकूफी तो नहीं कर दी इस मुए को खरीद के. और अब इतने दिनों के बाद उसे फिर कहीं से यह बात याद आई और ऐसे पूछा तो लगा कि घाव पर नमक, मिर्च, लहसुन-प्याज सब मल दिया हो.

“आज अचानक से यह बात कहाँ से याद आ गई?”

“याद तो आया न! अच्छा तुम जल्दी से ऑनलाइन आ जाओ.”—मेरे चिढ़ को ज़रा-सा भी नहीं भांपते हुए उसने मुझे कहा.

“ओके! मगर मुझे टाइम लगेगा. मुझे वेब कैमरा लगाना होगा.”—मैंने भी अपने चिढ़ व गुस्से को दबाते हुए कहा.

“अरे वेब कैमरा की क्या जरूरत है? उसके बिना भी कर सकते है.”—अब मेरे चौंकने की बारी थी.

“वह कैसे भला? ऐसे कैसे हो सकता है?”—मैंने पूछा.

“अरे दो तरह से विडियो चैटिंग हो सकती है! एक वेब कैमरा से और एक ऑनलाइन सुविधा का इस्तेमाल करके.”

“अच्छा! मुझे तो पता ही नहीं था. तुम बताओ मैं वैसे ही करती हूँ”—मैं उसकी बातों पर पूरी तरह से विश्वास करते हुए उसके अगले निर्देश का इंतज़ार करने लगी.

“तुम ऑनलाइन आया?”

“हाँ”

“तो अब हॉस्टल के बाहर देखो.”

“हॉस्टल के बाहर?”

“हाँ! हॉस्टल के बाहर देखो. मैं दीख रहा हूँ? कि नहीं?”—सच कहूँ तो मुझे उस वक्त भी समझ में नहीं आया कि माज़रा क्या है?

“विडियो चैटिंग करनी है तो नीचे आओ. उल्लू कहीं की!”

“क्या? तुम हॉस्टल के बाहर हो? कब आये? बताया क्यूँ नहीं? और मुझे बेवकूफ बना रहे थे.”—इतना सबकुछ एक साँस में कहते हुए मैं दौड पड़ी थी नीचे की ओर. सीढ़ियों में सरपट भागने की आवाज़ सुन कर वह मुझे डांटने लगा—“इडियट! गिर जायेगा. तुम आराम से भी आ सकती हो.”

नीचे उतर कर भी मैं सड़क के इधर-उधर देख रही थी और वह मेरे आगे-पीछे अपनी बाइक से घूम रहा था. हेलमेट की वजह से मेरा शक नहीं जा रहा था. फिर खुद ही आके मुझ पर हँसने भी लगा था. और मैं बेहद गुस्सा, इस बात र कि बिना बताये क्यूँ आया? और वह भी कोलकाता से खड़गपुर बाइक पर.

वह कुछ ही घंटें साथ रहा, मेरे साथ कैम्पस, मेरे लैब घुमा और फिर वापस चल दिया, मुझे बिग बाज़ार के सामने छोड़ के. उसे जाने देने का मन तो कभी करता ही नहीं था, बस मन की ही कभी सुने नहीं.

आज भी सोचती हूँ तो हँसती हूँ कि कोई तो पागल था मेरे लिए, जो सिर्फ मिलने भर के लिए सुबह-सुबह उठ के चल आया इस तरह. नहीं आता तो पता कैसे चलता कि यह दिन भी मेरे किस्मत में लिखी हुई थी.

मगर कभी-कभी यह भी सोचती हूँ कि ऐसी किस्मत क्यूँ लिखी जाती है? या इस तरह के किस्मत को लिखने के बाद क्या उस लिखनेवाले के कलम की स्याही सूख जाती थी या एक बार लिखने के बाद वो कलम तोड़ दी जाती थी, कि दुबारा वही किस्मत, वही पल जिया नहीं जा सके.

Wednesday, October 20, 2010

चादर तले जिंदगी.....

मेरे साथ मेरी जिंदगी रहती है और उसके साथ और भी कई, जैसे कि उसके खिलौने मन बहलाने के लिए, उसकी जरूरतें, उसकी इच्छाएं, चंद सपनें और कुछ मुठ्टी-भर आशाएं. उसे आज भी अपने से इतना जुड़ा पाती हूँ कि समझ में नहीं आता ये रिश्ता इतना अच्छा है तो क्यूँ हैं? कैसे है? दिनभर तो अपने-अपने कामों में व्यस्त होते है, मगर अक्सर रात को जब उसका बिस्तर ठीक करती हूँ तो वह जल्दी-से आके दुबक के सो जाती है. अक्सर चादर ओढ़ाते समय वह मेरा हाथ थाम कर कुछ देर को शांत हो जाती है, उस वक्त उसकी आँखों में कुछ भी नहीं होता. सोचती हूँ क्या कुछ कहना चाहती है? पूछने पर हँस के अपना सिर न में हिला देती है, बस एक दबाव-सा महसूस करती हूँ, उसके नरम हाथों को अलग करते वक्त. उसके साथ रहते-रहते मुझे भी अब उसकी आदत-सी लग गई है. उसकी हर बात, जरूरतों का ख़याल रखते-रखते समय कितना बीत गया है, यह सोचने बैठती हूँ तो खुद पर रश्क होने लगता है और मन-ही-मन उस देनेवाले का शुक्रिया भी अदा कर देती हूँ.

आज भी उसे वही चादर ओढ़ा रही थी. मगर उसने मेरा हाथ नहीं थामा. कुछ अजीब-सा लगा, क्या मुझसे नाराज़ है वो? मगर उसे सोता देख पूछने का मन नहीं हुआ. अनुतरित्त-से अहसास के साथ ज्यों-ही पीछे पलटी, उसने झट से मेरा हाथ थाम लिया. पीछे मुड़कर देखा, तो वह कनखियों से मुझसे जैसे कुछ बताना चाह रही थी.

“क्या हुआ?”—आखिर मुझसे रहा न गया और मैंने पुछ ही लिया.

“तुम्म्म......हे....कुछ लगता नहीं है कि क्या हो रहा है?”—उसने बड़ी मुश्किल से ये शब्द अपने गले से जैसे घोंट के निकाला हो.

“क्या हो रहा है? या हो गया जो मुझे समझ में नहीं आ रहा?”

“तुम क्या उसे महसूस नहीं कर पाती, जिसे मैं रोज महसूस करती हूँ.”—इस बार उसकी आँखों में दर्द था.

“तुम्हें कोई परेशानी है? तो मुझे अब तक बताया क्यूँ नहीं? मुझसे खुल कर बताओ न. मुझे सही में समझ में नहीं आ रहा कि क्या गलत हो रहा है.”—अब मेरी परेशानी बढ़ने लगी थी. उसकी चुप्पी मेरे हर प्रयत्न को खोखला साबित कर रही थी.

“तुमने मुझे सब-कुछ दिया है या देने की हरसंभव कोशिश भी की है. मैंने हंसना चाहा तो मुझे उसकी वजह दी. हर जरूरतें जिनसे कई लोग तो वंचित ही रह जाते है. मेरे बिस्तर में मेरे लिए तुमने हर चीजें संभाल कर रखी है. खुशियाँ, सपने, इच्छाएं, आशाएं, दुआएँ भी......”- इतना कह कर वह चुप हो गई.

“तुम्हें क्या ऐसा मैंने नहीं दिया, जिसके लिए तुम मुझसे कुछ कहने में भी हिचक रही हो.”—अब मेरी सब्र ने जवाब दे दिया था. अपनी सबसे प्यारी को मैंने इतना गुमसुम कभी नहीं देखा था.

“मैं नहीं कहती कि तुमने मुझे किसी चीज़ से वंचित रखा है. मगर कुछ तो गलत हो रहा है. बस सोचने से डरती हूँ कि कैसे तुम्हें कहूँ? तुम क्यूँ नहीं देख पाती, जो मुझे दीख रहा है.”

मैंने चारों तरफ आँखें दौडाई, हर चीजों को उलट-पुलट कर देखा, किवाडों को भी खोल-बंद कर देख आई. “अब तुम ही बता दो न”—मेरे इस अनुनय पर उसने मेरा हाथ मेरी ओर खींचा. मैं उसके सिरहाने तक आकर बैठ गई. वह अब प्यार से मेरे हाथ को अपने दोनों हाथों से सहलाने लगी. कुछ क्षण ऐसे ही बीत गए.

“सब कुछ सही है, यहाँ पर. कोई कमी नहीं है. पर ये जो चादर जो तुम ओढ़ाती हो, इसे कभी ध्यान से देखी भी हो? यह उदासी की चादर है. मेरी इच्छाएं, आशाएं, उमंगें सबको कम भले ही कर दो, मगर इस चादर के बोझ तले जीना बहुत कठिन है. यह बात तुम आज तक कैसे नहीं समझ पाई?”

Tuesday, October 19, 2010

अजीब हो तुम भी मेरी जिंदगी.....

अजीब हो तुम भी मेरी जिंदगी,
कभी हंसाने की पुरजोर कोशिश करती है;
तो कभी मुझे रोता देख
खुद भी खिलखिलाती है.

जिंदगी तुम मेरी क्या हो?
मेरे अकेलेपन को कम करने के लिए
मेरी बन कर आई हो;
या उस समय को और भी लंबा करने आई हो
जिसमें घाव सूखने के लिए पर्पराते रहते है.

जिंदगी की शकल में कई चेहरों से
परिचित करवाती हो;
फिर आइना बन मुझे मेरी बदकिस्मती
से अवगत भी कराती हो.

जब नहीं चाहिये तो
देने को उतावली हो जाती हो;
और कुछ माँगने पर
मुझे मेरा वाला ही ठेंगा दिखाती हो.

क्या तुम्हें मेरे साथ इसी तरह
रहना अच्छा लगता है?
या मेरी हर बातों को, जिसमें सच का हो मुझे भ्रम,
उसे तोड़ना अच्छा लगता है.

तुम जो भी हो जिंदगी
कैसी भी क्यूँ न हो,
मेरे लिए अब तो
तुम ही जीने का पर्याय बन चुकी हो.

लव आज कल - भाग २

कभी-कभी सोचती हूँ कि ऐसा क्या देख लिया उसमें जो अब तक उसे भूल नहीं पाई. उससे मिलना, जिंदगी का दो, तीन, चार और न जाने कितने राहों में बंट जाना और उस बंटी हुई जिंदगी का अलग-अलग राहों पर चलने को विवश होना, न ढंग से हँस पाना और न ही मन से रो पाना, वक्त की इक ऐसी ड्योढ़ी में आ के इस असमंजस में पड़ जाना कि दरवाजा किस ओर से खुलता व बंद होता है? कभी-कभी सोचती हूँ दरवाजा खोल के बाहर निकल जाना बेहतर है या दरवाजे का बंद रहना. खुली हवा में दम घुटने न लगे तो अक्सर कमरे के भीतर जोर-जोर से सांसें लेने लगती हूँ कि बाहर की आदत अब छूटने-सी लगी है.

आज फिर एक साँस ऐसी अंदर चली गई जिसमें उसका फिर से मिलना लिखा था. यह साँस भी अब सालभर पुरानी हो चली है, मगर उस मुलाकात की खुशबू अब भी वैसी ही है. उसका झूठ-मूठ का गुस्सा कि मुझे क्यूँ नहीं बुलाया, उस वक्त का सबसे नादान और प्यार-भरा मनुहार था. और उसके लिए मेरा सहेली से झूठ बोलना इस बात का गवाह कि मुझे भी उसी से मिलना था.

       “दोस्त! वीकेंड पर क्या कर रही हो?”—श्यामली ने फोन पर मुझसे पूछा. उसका मिलने का प्लान था और मुझे भी लगा कि अब कुछ वीकेंड कोलकाता में भी बिताना चाहिये.

       “कुछ भी नहीं, तुम बताओ कुछ प्लान बनाया है क्या?”,

“कल ११.०० का शो देखें? साथ में मेरा एक फ्रेंड भी है. अगर तुझे कोई प्रॉब्लम नहीं है तो! और उसके बाद वहीँ पर लंच करके बाकी दिन घर पर बातें कर के बिताएंगे.”—श्यामली की आवाज़ में काफी उत्साह था, जिसे महसूस करके मैं मन-ही-मन मुस्कुरा दी.

“हाँ, मैं कल आ जाऊँगी. मगर ११.०० का शो नहीं देख पाएंगे. मेरे पहुँचने तक लेट हो जायेगा. एक काम कर, तुमदोनों मूवी देखते रहना, मैं मूवी के खतम होने तक बाहर घूमते रहूंगी. वैसे आना कहाँ पर है?”

“साउथ सिटी माल, तू आ जायेगी ना? और कोशिश कर कि साथ में मूवी देख सकें.”

“हम्म..... मुश्किल है दोस्त! तुम मेरी टिकट मत काटना. और साउथ सिटी माल तो मैं कभी गई नहीं हूँ. मगर आ जाऊँगी. नो प्रॉब्लम! ओके तो कल मिलते है, तुम्हारी मूवी खत्म होने के बाद.”—इतना कह कर मैंने झट से अपने एक सहयोगी से साउथ सिटी माल जाने के लिए आसान-सा रास्ता पूछने लगी. उसके द्वारा सुझाया गया रास्ता भी मजेदार था.

दूसरे दिन सुबह-सुबह ही निकल गई हावड़ा के लिए. लोकल ट्रेन से हावड़ा, वहाँ फेरी से बाबूघाट, थोड़ा पैदल भी, फिर एसप्लानेड मेट्रो स्टेशन से रविन्द्र सदन और अंतत: वहाँ से ऑटो लेकर मैं साउथ सिटी माल के सामने खड़ी थी.

अभी श्यामली को फोन करके सूचित करने ही वाली थी कि उसका एस ऍम एस आ गया. “उल्लू! क्या कर रही हो?”- इसे पढते ही लगा कि इसे क्यूँ नहीं बताया? फ़ौरन ही मैंने उसे जवाब में लिखा—“मैं साउथ सिटी माल में श्यामली के साथ हूँ. वह अपने फ्रेंड के साथ मूवी देख रही है और उसके बाहर आने में टाइम है तो मैं विंडो शॉपिंग कर रही हूँ. ;-)

तुम एक नंबर का उल्लू है. मुझे क्यूँ नहीं बताया? मुझे भी आने का मन है.”—उसका “मैसेज पढकर मैंने उसे फोन कर के कहा -–“मैं कैसे तुम्हें बुलाती? कायदे से श्यामली को तुम्हें बुलाना चाहिये न!”

“मैं आ रहा हूँ. अभी तो वो मूवी देख रही होगी न. तब तक तुम्हारे साथ रहूँगा.”—उसने इसके आगे मुझे बोलने का और कोई मौका ही नहीं दिया. थोड़ी देर में वह मेरे पीछे खड़ा था, मुझे डराने के लिए. एक दूसरे को देख हम फिर से एक बार खुश हुए. वह इधर-उधर ताँका-झाँकी करने से बाज नहीं आ रहा था, अब माल में अच्छे लोग तो दिखेगे ही उसे. उसके साथ मैंने कुछ खरीददारी भी कर डाली. तब तक मूवी खत्म होने का समय भी होने लगा था और उसका मन नहीं जाने का हो रहा था. मरती क्या करती? श्यामली को फोन करके झूठ बोलना पड़ा—“ सुन, अमृत ने फोन किया था अभी. उसे जब मैंने बताया कि हम यहाँ पर आये हुए है तो मुझसे शिकायत कर रहा था कि उसे क्यूँ नहीं बुलाया. उसकी भी छुट्टी है आज. मुझे समझ में नहीं आया कि उसे बुलाऊं या नहीं? इसलिए तुझे फोन कर रही हूँ कि तुम्हारा दोस्त है, सो अगर मन हो तो तुम ही उसे फोन करके बुला लो.”

श्यामली ने तुरंत हाँ कर दी और उसने उसे फोन करके बुलाया भी, उस वक्त हमदोनो एक रेलिंग में खड़े थे. अमृत भी खुश होके बोला कि वह आकर मुझसे मिल लेगा, जब तक उसकी मूवी चलती है.

“तुम्हारे लिए आज पहली बार मैंने अपनी सहेली से झूठ बोला है. और कितना बोलना होगा? राम राम राम राम.....”—मेरे ऐसा कहने पर वह हँस दिया.

उसका चॉकलेट फ्लेवर वाला पेस्ट्री लाना, यह सोच के कि मुझे पसंद होगा और उसकी इस बात को सच बनाने के लिए मेरा उसका बड़े मन से खाना, आज भी मुझे मुस्कुराने पर मजबूर कर देती है. और तो और उसमें भी एक ही चम्मच से. उस वक्त तो अजीब ही लग रहा था, क्यूंकि मुझे एक ही प्लेट में खाना शेयर करना बिलकुल भी पसंद नहीं था.

थोड़ी देर बाद श्यामली और उसका दोस्त भी साथ हो लिए थे. लंच में भी उसने मेरे साथ बदमाशी की. मुझे और उसे ज्यादा कुछ खाने को मन नहीं था, तो उसने एक शाकाहारी प्लेट मंगवा लिया वो भी मुझसे बिना पूछे. फिर से एक प्लेट में खाना, और तो और मेरे हिस्से में चावल सरका देना वो भी यह कह के कि मैं रोटी खाऊँगा बिना मेरी मर्ज़ी पूछे, और अंत में मेरी प्यारी मिठाई को भी गप्चा जाना, उस वक्त मुझे उसका सिर फोड़ने का मन हो रहा था. और खुद पे गुस्सा भी कि कोई मुझ पर इस तरह हुकुम कैसे चला सकता है?

शाम होते-होते हम और श्यामली वापस साल्ट लेक चले आये और वह दोनों अपने-अपने मुकाम पर. दूसरे दिन भी जनाब को आने का मन कर रहा था तो सुबह-सुबह ही आ गया. मैंने उस दिन नूडल्स बनाये थे, वह जल्दी से खत्म करके मुझे “और दो” का इशारा करने लगा. “पेटू कहीं का! सब खा लिया. पहले मेरे पाक-कला पर दोनों ही डरे जा रहे थे और अब पूरा चट कर डाला.”—फिर भी मुझे अच्छा लगा उसे खिला कर. उस दिन दोपहर का खाना भी मैंने ही बनाया. रसोई में उसने मेरी जरूरत से ज्यादा मदद करने की कोशिश की. जिसे सोच-सोच कर मैं डरे जा रही थी कि मेरी दोस्त क्या समझेगी? मगर फिर भी उसका यूँ साथ देना बहुत अच्छा लग रहा था. हम दोनों फिर भी लड़ने में लगे हुए थे. उस पर मेरा ऊँगली का कट जाना और उसका इश्श्श...... करके मेरी तरफ चेहरा बनाकर देखना – किसी फ़िल्मी सीन से कम नहीं था.

रात होने से पहले उसे अपने बेस में लौटना था. मैं उसे जूतों के लेस बांधते वक्त बड़े ध्यान से देख रही थी और सोच रही थी कि इसमें ऐसा क्या है? इसे जाने देने का मन ही नहीं करता!

वह फिर सीढ़ियों से उतरता उस मोड़ पर गायब हो गया, तो मन ने उस मोड़ की दीवारों से बड़ी जोर से प्रार्थना कि वो एक बार के लिए हट जाएँ तो उसे और थोड़ी दूर तक जाता हुआ मैं देख सकूँ. पता नहीं किस आस से उस मोड़ पे अब भी निगाहें टिकाये खड़ी थी की कि वह पीठ को पीछे की ओर झुकाते हुए मेरी तरफ हाथ हिला रहा था. उसकी उस शैतानी-भरी मुस्कराहट पर मैं भी हँस दी कि सही में उन दीवारों को मेरी आवाज़ सुनाई देती भी है! या इस दिल की आवाज़ को वह भी सुन लेता है कभी-कभी!
       

Thursday, October 14, 2010

लव आज कल - भाग १


मुझे हिंदी फिल्मों का बहुत शौक है, खासकर कि वो देव आनंद, दिलीप कुमार, प्रदीप कुमार, मधुबाला, गीता दत्त के जमाने से हो तो और भी. मगर अब जब कोई मेरी पसंदीदा फिल्म के बारे में पूछता है तो बस वही याद आता है- “लव आज कल”................

किसी ने अभी तक पूछा तो नहीं कि यही फिल्म क्यूँ? मगर कोई पूछे, तो सोचती हूँ उसे क्या जवाब दूँगी? वैसे इस फिल्म तक का सफर कहने को तो ज्यादा लंबा नहीं था, वो हमारी चौथी मुलाक़ात थी. फिर भी क्यूँ मुझे पहले से दूसरी, दूसरी से तीसरी और तीसरी से चौथी तक जाने में अब भी इतना समय लगता है?

ऑरकुट में मुझे ढूँढने में उसने उतना समय नहीं लगाया था जितना कि मुझे पूछने में. मेरे हॉस्टल पहुँचते ही वह मुझे फिर से मिल गया मेरे लैपटॉप के स्क्रीन पर, अपने ड्रैकुला वाले दाँतों से साथ. मगर मैं यह कैसे जताती कि तुम्हारी ये हँसी मुझे अच्छी लगने लगी है. जो कुछ कह पाई तो यही कि “कैसे हो? क्या कर रहे हो? तुम्हारे फोटो अच्छे है.” इतने में अगर वह मुझे समझ पाता तो..... तो भी मुझे नहीं समझ में आता कि क्या होता फिर?

शुरूआती दिनों में उससे सिर्फ औपचारिक बातें ही होती थी. कभी-कभार मजाक भी. पर जो भी होती थी, उसमें दोनों का ध्यान जरूर रहता था. कुछ ही दिनों बाद उसका जन्मदिन था, मुझे जहाँ तक याद है उसे जन्मदिन की शुभकामनाएं देने के बाद ही हमारी बातचीत और भी बढ़नी शुरू हो गई थी. उसी दिन उसने मुझे ऑरकुट से हट के जी-टॉक पर बात करने के लिए निमंत्रण दिया, जिसे मैंने बड़े मन से स्वीकार भी कर लिया. उस दिन वह अपने घर पर ही था, मगर अकेला. उसका घर पुरुलिया के पास था. उसके माता-पिता सिंगापूर में अपनी बेटी और दामाद के पास घूमने गए थे. वह वाशिंग मशीन पर अपने कपड़े धोते-धोते मुझसे चैट कर रहा था. उस दिन इधर-उधर की ही बातें हो रही थी, कि अचानक से पता नहीं किस बात के ले के वह थोड़ा परेशान हो गया. मुझे समझ में तो नहीं आया, पर इतना तो समझ ही गई कि मेरी कुछ बातों को उसने अपने ऊपर ले लिया है. मेरी ये मीन राशि भी को भी उसी वक्त काम आना था, उसकी परेशानी को समझने की कोशिश करने लगी. बातों-ही बातों में उसने बताया कि उसकी करीब दो-ढाई साल की एंगेजमेंट जो कि शादी में भी बदल जाती, उसी साल के फ़रवरी महीने में, टूट गयी है और वह इस वाकये से काफी अवसादग्रस्त भी मालूम पड़ रहा था. मुझे फिर समझ में नहीं आया कि अब उसे मैं क्या कहूँ? बस इतना समझ में आया कि मुझे और करीब नहीं आना चाहिए. “मुझे लगता है तुम मुझे अभी इतना भी नहीं जानते जिससे तुम्हें इतना कुछ कहना चाहिए. और अगर अभी से तुम अपनी भावनाओं की साझेदारी करोगे तो जो भी होगा, उसकी बुनियाद सही नहीं होगी. पहले तुम मुझे अच्छी तरह से जान लो. और अपने उलझनों से खुद ही निकलो तो अच्छा होगा. अपनी-अपनी परेशानियों से परे होके हम अच्छे दोस्त बने रहे तो ज्यादा अच्छा रहेगा.”- मैं इतना कह के चुप हो गई. “ हाँ, तुम ठीक कहती हो. शायद मैं अपने अकेलेपन से छुटकारा पाना चाहता हूँ, और इसलिए तुम मिली तो बस मन से निकल आया. वैसे तो मैं किसी से कहता नहीं हूँ. पता नहीं क्यूँ मैं तुमसे ये सब कह रहा हूँ?”—उसका यह कहना भी मैं समझ रही थी कि क्यूँ कह रहा है. उस दिन हमने बात वहीँ खतम कर दी.

उसके बाद भी हमारी बातचीत होती रही. अब वो कभी-कभी मुझे फोन से मैसेज भी भेज दिया करता था, जिसका प्रतिउत्तर मैं अवश्य दिया करती थी. दिनभर शिप में व्यस्त रहने के बावजूद भी वह मुझे काफी मैसेज किया करता था जैसे कि “क्या कर रही हो? गुड मोर्निंग!, लैब में हो क्या? मैसेज क्यूँ नही किया? कुछ जोक्स,” वगैरह-वगैरह. कभी-कभी उसके मैसेज बहुत मजेदार भी हुआ करते थे जैसे कि “डोंट आओ, उल्लू वॉट करता?”. एक दिन शिप से उसने जून की भरी दोपहरी में मैसेज किया—“ यहाँ इतनी गर्मी और उमस है कि मैं उबल रहा हूँ. उल्लू मैं क्या करूँ, लगता है मोमो बन गया हूँ.” और इस तरह उसने अपना नामकरण स्वयं ही कर लिया. ‘मोमो’ यह नाम मेरे मोबाइल में अब भी है, और उसका तो बन ही चुका था. मुझे भी पता नहीं कैसे और कब उसने ‘उल्लू’ बुलाना शुरू कर दिया. और मैं मान भी गई खुद को उल्लू. उसके बाद हमने कभी एक-दूसरे को और किसी नाम से पुकारा ही नहीं.

अब हम एक-दूसरे खुलने लगे थे. कोई पर्दा नहीं, जो मन में आया बोल देने का. अब तो घंटे-भर भी चुप नहीं रहते थे. और उसे तो गुस्सा आता था, जब मैं लैब में काम करते वक्त उसके एस एम एस का जवाब नहीं देती थी. “तुम्हें बता देना चाहिए था कि तुम्हारे पास मेरे मैसेज का रिप्लाई देने तक का टाइम नहीं है. मोमो इज गुस्सा.”—उसकी इन सब बातों पर मैं हँस देती थी कि यह २९ साल का ही है ना.

एक-दूसरे के दुःख के अलावे हम बाकी सब कुछ बताते थे, जैसे कि किसी पर खुन्नस, गुस्सा, मजाक, कुछ अनहोनी, अपने सपने, आस-पास के लोगों के बारे में, सब कुछ. कुछ दिनों से मैं अपने काम को लेके परेशान थी. मुझे जब खुद से कोफ़्त होती थी तो मैं बच्चों के पार्क में जाकर उनके लिए बनाये गए झूले में घंटों बैठे रहती थी या किसी अनजान सड़क पर चलते रहती थी तब तक जब तक कि पाँव थक न जाएँ. एक दिन यूँ-ही अजीब मन से उसे फोन कर के कहा कि क्या वह शाम को फुर्सत में है.

उसके कारण पूछने पर मैंने कहा—“बस यूँ ही हावड़ा ब्रिज पर खड़े होकर हवा से रु-ब-रु होने का मन कर रहा है.”

“अजीब लड़की हो तुम. इस वक्त तुम आओगी तो फिर वापस जाते-जाते रात हो जायेगी. फिर कभी समय निकाल कर आना. आज ऐसे इस तरह से आना ठीक नहीं.”

उसके इतना कहने पर मुझे गुस्सा आ गया-- “आना है तो आओ, नहीं तो मत आओ. मेरे को जाना है तो मैं अकेली ही चली जाऊँगी. मैं सिर्फ पूछ रही हूँ.”

और मैं चली आई. शाम के चार बज गए थे. वह भी दौड़ते-भागते आया था. भूखे-प्यासे तो थे ही, सो पहले फ़ूड प्लाज़ा में जाकर पेट में कुछ डाला. फिर उसे मैंने कहा- “ चलो ब्रिज घूमने!” मेरे साथ वह पीछे-पीछे बाहर निकल आया. जब मैंने उसे पैदल चलने को कहा तो उसने कहा—“ मैंने अपनी अब तक की जिंदगी में कभी भी यह करने को सोचा भी नहीं कि हावड़ा ब्रिज में पैदल चलूँगा. कितनी बार आया हूँ, मगर टैक्सी-गाड़ी लेके जितनी जल्दी हो सके यहाँ से बस किसी तरह पार होने का ही सोचा हूँ.”

“कभी मेरी तरह भी जीना सीख लो, मुझे पता है अभी तुम्हें यह बचकाना हरकतें जैसी लग रही होगी. मगर वहाँ पहुँच कर फिर से मुझे कहना कि कैसा लगा?”— इतना कहने के बाद हमदोनों सड़क पार करने के लिए देखने लगे. मुझे तो यह भी नहीं पता था कि कहाँ से हम चलना शुरू करें?  बस इधर-उधर करके किसी तरह हमें सही रास्ता दीख ही गया.

ब्रिज के किनारे कचरों का ढेर लगा था, उसे पार किया तो छोटी-सी सब्जी-मंडी दिखने लगी, सड़क के किनारे. कुछ सब्जियों के नाम मुझे तो पता भी नहीं थे, कौतुहलवश मैं सब्जीवाले से उनके नाम, बनाने की विधि वगैरह पूछने लगी तो मुझे ऐसा पूछते देख अमृत बनाम मोमो हँसने लगा था, शायद मेरी पागलपनी पर. कुछ और ऊपर चढ़े तो १०-१० रुपये वाले खिलौने मिलने लगे. ब्रिज के किनारे दोनों तरफ से लोग आ-जा रहे थे. कभी –कभी तो हमें लग रहा था कि हम भीड़ की बदौलत ही आगे बढ़ पा रहे थे. कभी अचानक से कोई हेलिकॉप्टर मेरे पैरों के पास गिर जाता तो कभी सामने से ढोते हुए आ रहे टोकरियों से उसका सिर टकरा जाता था. दो-चार बच्चे आपस में लड़ते हुए, तो पुलिसकर्मियों की पैनी नज़रें हमदोनों को भेदती हुई चली जाती थी. कुल मिला के उस २० मिनट के सफर को हमने काफी अच्छे से जिया.

ब्रिज के बीचोंबीच पहुँच के मैं एक साफ़-सी जगह पर अपने हाथ टिका के खड़ी हो गई. वो भी बगल में आकर मेरे साथ ब्रिज के नीचे बहते पानी को देखने लगा.

मैंने पूछा—“पता है, नीचे बहते पानी को देखकर मुझे कैसा लग रहा है?”

“हम्म..... जैसे कि आसमान के बादल नीचे जमीन पर उमड़-घुमड़ रहे हो.”—वह अपने ही ख्यालों में कुछ सोचता हुआ बडबडाया.

मैं उसे इक पल को आश्चर्य से एकटक देखती रह गई. “उफ्फ्फ....... हमारे ख़याल इतने क्यूँ मिलने-जुलने लगे है?”—मैं मन-ही-मन झुंझला गई.

थोड़ी देर तक दूर जहाजों को पानी में तैरते-रुकते देखते रहने के बाद मैंने उसकी ओर देख के कहा—“ हाँ तो अब बताओ, कैसा लग रहा है यहाँ पर आकर.”

वह मेरी तरफ मुस्कुराते हुए कहा—“सोच रहा हूँ कि मैंने कभी ऐसा क्यूँ नहीं सोचा?”

“चलो अभी और भी बहुत कुछ सोचने को बाकी है.”- और मैंने उसे वापस चलने को कहा.

पुल के नीचे आकर मैं फेरी वाले के तरफ बढ़ दी और वह भी मेरे साथ-साथ चलने लगा. “दो बाबुघाट के लिए!”—मैंने १० रुपये का नोट टिकट काउंटर में अंदर की ओर खिसकाया. टिकट लेके उसे कहा—“चलो अब फेरी में घुमेगे.” फेरी के लिए काफी देर तक इंतज़ार करते रहने के बीच उसने मुझे शिप के बारे में काफी-कुछ बताया. फिर थोड़ी देर में हम बाबूघाट भी पहुँच गए. उस बीच वह मुझे नदी किनारे बने मकानों, पार्कों, होटल वगैरह के बारे में बताने लगा और उनकी खासियत भी. वहाँ से एसप्लानेड तक भी मैंने उसे पैदल चलने को कहा. उसे वह रास्ता उस वक्त तक तो पता भी नहीं था. न्यू मार्केट में आके हम सड़क किनारे लगे दुकानों को पार करते हुए पार्क स्ट्रीट की तरफ बढ़ने लगे.

“एक रेस्टोरेंट है यहाँ, एक बार मेरा एक फ्रेंड मुझे लाया था यहाँ, क्या तुम वहाँ चलना पसंद करोगी?”—उसे अचानक कुछ याद आ गया था. मेरे हामी भरने के बाद हमदोनों ने दिशा बदल ली अपने गंतव्य की ओर. थोड़ी देर में हम उस रेस्टोरेंट के सामने खड़े थे.

उसने मुझसे पूछा—“अभी ही लंच किया है, क्या तुम डिनर करोगी इतनी जल्दी या कुछ और?” उस वक्त शाम के सात बज रहे थे.

“नहीं कुछ हल्का-फुल्का चलेगा. अभी और भारी खाने की इच्छा नहीं है.”

“ओके, मैं तो एक बियर लूँगा और तुम?” – मुझे तंग करने के मूड से उसने मुझे तिरछी नज़रों से मेरी प्रतिक्रिया देखनी चाही.

“ह्म्म्म..... मैन्ह्ह्ह्ह............ भी वही लूँगी जोह्ह्ह्ह्ह....... तुम लोगे.”—मैंने धीरे से उसकी तरफ नहीं देखते हुए कहा.

“सच्ची.........!!!!!”—उसे अचानक से करंट लग गया हो जैसे.

“हाँ.....” – मेरे इतना कहने पर उसने कहा – “देखते है तुमको”.

फिर हम रेस्टोरेंट के अंदर चले गए. एक ३ कुर्सी वाले टेबल पर हम दोनों बैठ गए. उसने ही आर्डर किया क्यूँकि मुझे हमेशा की तरह मेनू देखने से सख्त परहेज था.

“सामने कोई सुंदरी बैठी हैं ना? आराम से देख लो. मगर पिटने वाली नौबत मत लाना.”

मेरी इस बात पर वह शरमा गया कि उसकी चोरी पकड़ी गई--“तुम एक नंबर की बेशरम हो!”
.
“हाँ अगर सब कुछ समझते हुए भी नहीं समझना बेशरमीपन है तो वो मैं हूँ!”—मेरे इस बात को उसने काटने की कोशिश नहीं की.

“तुम्हें पता है वह लड़की उसकी बीवी नहीं , उसकी सेक्रेटरी या उसी के ऑफिस की कोई होगी.”

उसके यह कहने पर मैंने कहा--“हम्म.... काफी रिसर्च किये हो, गुड गुड. मगर फिलहाल तुम सिर्फ अपनी ओर ध्यान दो.”

थोड़ी देर तक जैसे मेरी ही बातों में डूब गया हो, उसने कांच के गिलास को हाथ से गोल-गोल घुमाते हुए जैसे खुद से कहा—“ क्या सोचूं अपने बारे में?”

“बहुत कुछ!, बहुत कुछ अच्छी बातें सबके जीवन में होती है. उन्हें सोचो और अगर मन करे तो मुझसे भी कह सकते हो फिलहाल के लिए!.”—ऐसा मैंने उसके उदास से चेहरे को देखते हुए कहा.

“क्या सुनना चाहती हो मेरे बारे में?”- वह फिर से उसी उदासी में डूबने की तैयारी करने लगा.

“वही जिसे सुन के मुझे लगे कि मैंने अमृत को अमृत की तरह जाना है, न कि दूसरों के बनाए हुए अमृत से परिचित होना है. तुम्हारी परेशानियों से हट कर भी तुम्हारी एक पहचान है, एक समय रहा होगा जिसमे तुम्हारा नाम लिखा गया होगा. उन अच्छे पलों को याद करके अपने बारे में बताओ.” – पता नहीं कैसे मैंने उससे ये पूछ डाला. थोड़ी देर तक वह मेरी आँखों में देखता ही रह गया कि किसी और ने अब तक ये क्यूँ नहीं पूछा.

थोड़ी देर में वेटर ने बियर और और एक अजीब-सी चीज़ परोस दी. “इसमें क्या है?”—मैं सामिष तो थी मगर उसमे भी मैंने अपने लिए कई परहेज बना रखे थे. सो मैंने उससे पूछ ही डाला.

“चिकन ही है. चिंता मत करो.”- उसके इतना कहने पर मैंने राहत की साँस ली.

बियर पीते वक्त वह मुझे ही देख रहा था कि सामनेवाली लड़की पर कितना भरोसा किया जा सके. जब उसे भरोसा हो गया तो उसने कहना शुरू किया—“तुम तो जानती हो मेरे पढाई लिखाई के बारे में. इसके अलावे मैंने सिर्फ टाइम पास किया है. मेरी लाइफ में बहुत लोग आये, रहे और किसी-न-किसी कारण से चले भी गए. जैसे कि नेवी के लोगों के बारे में एक आम राय होती है, वैसे ही मैं भी हूँ. सिर्फ नेवी में आने के बाद से नहीं. शायद मैं बचपन से ही ऐसा हूँ. कई लड़कियां आई और गयी, मगर जब भी मैंने अपने आपको लाइफ में सेटल करना चाहा. मैं नाकाम ही रहा.”

“क्या तुमने फ्लर्टिंग, प्यार के अलावे और कुछ नहीं किया?”

“सच बोलूं तो सही में इसके सिवा कुछ नहीं किया.”- और वह खिलखिला के हँस दिया.

“अच्छा तो वही सही, शुरू से बताओ किन-किन से मिले, उनके साथ क्या अच्छा लगा, और फिर कैसे उस समय से खुद को बाहर निकाला.. वगैरह वगैरह.” फिर उसने एक-एक करके अपने सारी गर्लफ्रेंड्स के बारे में बताना शुरू किया. कैसे वो उनको पटाने करने के लिए गिटार पर धुन सीखा करता था, रात-रात भर प्लेटफोर्म में बिताया पड़ा था, कैसे उसके लिए कोई रोती थी, कभी किसी के माता-पिता से झगड़ा कर लेने की नौबत भी आई थी, शादी के लिए भागने तक की प्लान कर लेना, अपने लिए दूसरे का ब्रेक-अप करवा देना, पड़ोस की लड़कियों से हॉस्पिटल की नर्स तक को एक दिन में पटा लेना-- सही में उसे मानना पड़ेगा. इतना कहते-कहते वह उस लड़की की बात पर भी आ गया जिसे वह दुर्गा पूजा के पंडाल पर मिला था और २ साल के अफेयर के बाद शादी की तैयारी भी शुरू हो गई थी. बस एक महीने पहले ही उसने शादी तोड़ दी, क्यूंकि कई दिनों से वह लड़की अपने साथी को लेके शादी के लिए तैयार नहीं हो रही थी. मामला सीधा-सादा लव-त्रिकोण का था. वह उसे बहुत चाहता भी था, ऐसा मुझे लगा.

यहीं पर आकर वह रुक गया जैसे कि उसकी कहानी खतम हो गई. “अरे यह सब तो होता रहता है. और शायद इसी में सबकी भलाई हो. या शायद तुमदोनों ने एक दूसरे को ठीक से समझा नहीं होगा. और वह सिर्फ २२ साल की थी, उम्र के हिसाब से सोच में काफी फर्क हो जाता है. और शायद यह भी वजह रही होगी.”—इतना कह कर मैं आगे और कुछ नहीं बोल पाई. उसकी आँखें नम थी उस वक्त. और मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि आगे कैसे बात को बढ़ाया जाना चाहिए?

“तुम अपनी बताओ..... तुम्हारा कोई बॉयफ्रेंड है?”- मेरी तरफ देखते हुए उसने बियर को खतम किया.

“मैं .....मेरी लाइफ तुम्हारी तरह तो नहीं है बिलकुल भी, मुझे पढाई के अलावे शायद और कुछ ठीक से कभी करने आया ही नहीं.... मास्टर्स में एक अच्छा दोस्त हुआ करता था जिसे मैं बेइंतहा पसंद भी करती थी, मगर उसने कॉलेज से निकलने के बाद किसी और से शादी कर ली. दुःख इस बात का है कि उसे किसी और से ही शादी करनी थी तो मुझे भ्रम में नहीं रखना चाहिए था. गुस्सा तो बहुत है उस पर जो कि सिर्फ अंदर ही रहेगा, कभी निकलेगा नहीं. फिलहाल अपने एकाकीपन के साथ जिंदगी को मजे से जी रही हूँ. जो उन दो सालों में खो चुकी थी, उन्हें वापस फिर से ढूँढने में लगी हूँ. बस यही है मेरी कहानी.”—बियर का थोड़ा-थोड़ा असर मुझे कर रहा था, सो मैंने अपनी जुबां को काबू में रखा था. और मैं चुप हो गई. वह मेरी तरफ देख कर मुस्कुराया-सा, बिल चुका कर कहा-“चलो अब बाहर चलते है.”

मेरी चाल पर मुझे थोड़ा शक होने लगा था. सो मैंने उसका हाथ पकड़ कर सीधे चलने की कोशिश करने लगी. मन तो हल्का लग ही रहा था कि अचानक से उसके फोन पर कॉल आता है. मैं एक तरफ हो के एक रेलिंग पर थोड़ा ऊपर चढ़ कर खड़ी हो गई और उसे दिखा के हाथों को पंखों के जैसे हिलाने लगी. वह मुझे देख मुस्कुराया और मेरी बाँह पकड़ कर मुझे आगे चलने को कहा. बस पकड़ कर हम स्टेशन चले आये. मेरी ट्रेन १० मिनट में छूटने वाली ही थी. दौड़ते-भागते मैं महिला कोच के पास आके रुक गई. तब तक मेरा सारा नशा उतर चुका था. मुझे चलती ट्रेन में चढ़ने से बड़ा डर लगता है, सो मैंने उससे गाड़ी के सिग्नल होने के पहले ही उसके आने और साथ देने के लिए धन्यवाद कहा.

सिर्फ ३० सेकेंड ही बचे थे ट्रेन के चलने में, जब उसने धीरे–से मेरे कान के पास आकर थोड़ा झुक कर कहा--“तुम्हारे साथ आज की शाम बिताना मुझे भी बहुत अच्छा लगा. मुझे इतना अच्छा समय देने के लिए, हावड़ा ब्रिज, फेरी सबके लिए और सबसे ज्यादा मुझे सुनने के लिए तहे दिल से शुक्रिया कहना चाहूँगा.” इतना कह कर उसने मुझे एक ओर से आलिंगन में ले लिया. मुझे कुछ असहज-सा लगा और मैं शरमा कर आँखें नीचे कर एक तरफ हो गई. वह भी मेरी इस असहजता पर हँस दिया. मैं ट्रेन में चढ़ गई और उसे हाथ हिलाते हुए उस वक्त के लिए आखिरी बार देखा और अपने सीट पर आकर पसर गई. अपनी दूसरी मुलाकात को मैं अब भी अपनी बंद आँखों से महसूस कर रही थी.

Saturday, October 9, 2010

परिचय







उससे मिले हुए अब साल भर से ज्यादा हो चुके है. पहली बार यही कोई अप्रैल का महीना था बीते वर्ष का, महीने के अंतिम रविवार को मिली थी मैं उससे. यह आज भी अच्छी तरह से याद है मुझे. वैसे तो कोलकाता मैं सिर्फ शॉपिंग के लिए जाती थी, कभी अकेले तो कभी अपनी छोटी बहन के साथ. उस बार भी ऐसे ही चली गई थी, शायद मन को कुछ खटक रहा था, अपने एकाकीपन से तंग आकर मैंने हावड़ा जानेवाली किसी एक लोकल ट्रेन के महिला आरक्षित सीटों में से एक पर अपना कब्ज़ा कर ही लिया. ट्रेन की गति में मैं अपनी बंद आँखों से बहुत कुछ गिरता-सा महसूस कर रही थी, जो ट्रेन की रफ़्तार में किसी और को तो क्या मुझे भी नहीं दीख रहे थे. खैर जो कुछ भी था, मैं सिर्फ एक ही चीज़ उस वक्त महसूस कर पा रही थी, वह विपरीत हवा के तेज-तर्रार चाँटें.

हावड़ा पहुँच कर ध्यान आया कि हाल में ही मेरे बी.टेक. की एक साथी दिल्ली से कोलकाता शिफ्ट कर गयी थी. गत वर्ष की मंदी में उसकी भी नौकरी चली गई थी. नई नौकरी कोलकाता में मिली थी, हालांकि बांग्लाभाषी होने के बावजूद वह कोलकाता बिलकुल भी आना नहीं चाहती थी. मगर कभी-कभी हम जिनसे जितना दूर भागते है, वही हमारे किस्मत में होती है, उसके साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. हाँ तो मुझे उसकी याद यूँ ही अचानक से आ गई. मोबाइल नम्बर तो था ही, सो नंबर घुमाया तो पता चला कि सन्डे घर पर ही मना रही है. मैंने पता वगैरह पूछा और कहा कि एकाध घंटे में आ रही हूँ , सो खाना-वाना बना कर रखे. साल्ट लेक में एक फ्लैट लेके रह रही थी वो. चूँकि मैं कभी उस तरफ गई नहीं थी, और संयोग से मेरे टैक्सी ड्राईवर को भी उस जगह की ज्यादा जानकारी नहीं थी. खैर कई गोल-चक्करों में बार-बार चक्कर लगा के उसके फ्लैट को मैंने ढूँढ ही लिया.

करीब छह वर्षों के बाद हम फिर मिल रहे थे. उससे मिलना एक सुखद अहसास था. कुछ ही पलों में उसकी फ्लैट की चहारदीवारी जैसे पिघल के अपने पुराने कॉलेज के दिनों के होस्टल जैसी शक्ल लेने लगी थी. चंद मिनटों में उन चार स्वर्णिम वर्षों को हमने मिल के फिर से जिया.

बातों-ही-बातों में उसने बताया कि आज उसने किसी और को भी घर पर खाने के लिए बुलाया है. मैं मन-ही-मन सोची – “क्या मैं गलत समय पर आ गई हूँ? “. अपनी गलती सुधारने हेतु मैंने कहा भी कि मैं तब जल्दी चली जाऊँगी. फिर उसने कहा कि वह उसका पारिवारिक मित्र है जो भारतीय नौसेना में कार्यरत है. चूँकि इससे पहले मैं किसी ऐसे व्यक्ति से नहीं मिली जो डिफेन्स सर्विस में हो, सो मन में उत्सुकता तो जाग ही गयी थी. वैसे भी इन क्षेत्रों में कार्य करनेवालों के बारे में बहुत तरह के विचार थे मगर सुनेसुनाये विचार ही, सो आज उन सब बातों की सच्चाई जानने की इच्छा प्रबल होने लगी थी.

करीब एक घंटे के बाद दरवाजे में घंटी बजी तो मन में एक डर-सा पैदा होने लगा, ठीक वैसे ही जब किसी अनजबी से मिलने से पहले होता है. दरवाजा खोलने पर उसकी कामवाली बाई आई थी. गई भैंस पानी में, खामख्वाह मैं डरे जा रही थी. उसके बाद मैं टी.वी. देखने बैठ गई, सहेली गृह-कला में दक्ष थी तो वो रसोई में व्यस्त थी. मुझे एक बार लगा कि पूछ लूँ कुछ मदद चहिये तो, वैसे मन तो नहीं था कुछ भी करने को. फिर भी औपचारिकतावश पूछ ही लिया. उसके मना करने पर मैं फिर बेशर्मो जैसी आराम से एक कुर्सी पर अपने पैर लादे और दूसरे में खुद को और टी.वी. देखना शुरू कर दिया.  उस वक्त टी.वी. मेरे लिए कोई नया-नया इंस्टाल किया हुआ गेम लग रहा था, बरसो जो बीत गए थे रिमोट पर उंगुलियां फेरे. यही एक साइड इफेक्ट रह जाता है, हॉस्टलवादी बन जाने पर.

फिर से एक बार दरवाजे की घंटी बजी, तब तक मैं भूल ही गई थी कि कोई आनेवाला भी है. मेरी सहेली ने ही दरवाजा खोलने का कष्ट किया, मैंने इतनी भी मदद नहीं की उसकी. अंदर जो व्यक्ति आया, उसे देख के मेरे सारे विचार धराशायी हो गए. वह एक कॉलेज छात्र के जैसा पीछे बैग लटकाए, महीनो-महीनो नहीं धुलनेवाली जींस व पूरी आस्तीन वाली बिना इस्त्री किये हुए शर्ट में वो भी ढेर सारी खुशबू के छिड़काव के साथ खुद को शाहरुख खान मान रहा था. मैं मन-ही-मन सोच रही थी कि किस हैण्डसम को देखने की तमन्ना तबसे मन में पाले हुए थे और किस्मत को ऐसे ही लात मारना था. इतना सोच ही रही थी कि वह मेरे सहेली से बंगला में कुछ बोलते हुए हँसा. उसके दाँत हिमालय पर्वतमाला की तरह एक कतार में थे, जिसमे से दो ऊपर के और दो नीचे के दाँत कुछ ज्यादा ही नुकीले थे, सच कहूँ तो उसके मुँह से गर्रर-गर्रर की आवाज़ ही सुनना बाकी रह गया था. पता नहीं उसके दाँतों के लिए कोई टूथ-ब्रश भी बनता भी होगा कि नहीं. उसकी वो हँसी ...... ड्रैकुला की हँसी ही थी, मगर फिर भी सबसे अच्छी और प्यारी हँसी थी. इस बात से इनकार करके मैं खुद पर झूठ का तमगा नहीं लगा सकती. अपना और क्या था, थोड़े अरमां तो सच हो ही गए!

फिर मेरी सहेली ने हम दोनों को भी एक-दूसरे से परिचित करवाया. अभी भी खाना बना नहीं था पूरी तरह से जो कि एक तरह से मेरे लिए अच्छा ही हुआ और मुझे उससे कुछ बात करने का मौका मिल गया. मैं कुर्सी पर और वो ज़मीन पर बैठ गया. रसोई बगल में ही थी तो वह उससे बात भी कर रहा था. और मैं चुपचाप उनदोनों की बातें समझने की कोशिश में, अब अंग्रेजी भी मन-ही-मन में हिंदी में अनुवाद कर समझने की आदत थी तो ये तो बंगला थी. बहुत देर से यूँ ही उनदोनों की बातें सुनते बीत गए, बोर होकर मैंने टी.वी. पर ध्यान देना शुरु कर दिया. जब उनदोनों की अपनी-अपनी बातें, जो कि न जाने कितने ज़माने से अपने-अपने मन के टोकरी में भर-भर के पड़े हुए थे, निकल आये तो मेरी सहेली ने मेरे बारे में बताना शुरू कर दिया. उसके बाद जनाब को मुझमें ध्यान आया, हालांकि मैं शुरू से समझ रही थी कि सामनेवाला जान-बुझ कर मुझे दरकिनार कर रहा था ताकि मैं उसकी बेरुखी से तिल-मिला जाऊँ. उम्र में एक समान होने के बावजूद वह अब भी नया-नया कॉलेज में आया हुआ जैसा बन रहा था. और मैं मन-ही-मन सोच रही थी कि “बेटा इतने साल के तजुर्बे के बाद लोगों को अकल आ जाती है और संभल जाते है. मगर ये जनाब है अभी भी फ्लर्ट करने का भूत दिमाग से नहीं उतरा.” खैर मुझे क्या, मुझे उस जलेबी को उसके अंतिम छोर तक जानने का मन हो आया सो मैंने ही उससे बात शुरू की. “तुम्हारा नाम क्या है?”—जवाब में उसने कहा ‘अमृत’. मेरा अगला प्रश्न फिर यही था- “तुम बंगाली हो?”. उसने कहा – “ हाँ! क्यूँ तुम्हे क्या लगता है?”. चूँकि अब तक मैं उसे नॉन-बंगाली वर्ग में रख रही थी वो भी इसलिए कि उसकी बंगला मुझे समझ में नहीं आ रही थी कि वह बंगला में ही बोल रहा है या किसी और भाषा में. बंगला में उसका उच्चारण, सच कहो तो बंगला को प्रताड़ना देने की तरह था और यह मुझसे बेहतर कौन जान सकता है जो अपने लैब में अपनी बंगला भाषा की दक्षता को निखारने में लगा रहता था. हाँ, तो मैंने उसे जवाब में कहा—“ नहीं. दरअसल मैं तुम्हें नॉन-बंगाली समझ रही थी, और अमृत नाम बंगाल में कम सुनने को मिलता है.” वह फिर मुस्कुरा कर रह गया. थोड़ी देर बाद उसे लगा कि कह देना चाहिए और उसने कहा—“मेरे पिताजी बंगाली है.” मैं भी सिर्फ मुस्कुरा कर रह गई.

कुछ देर की चुप्पी के बाद मैंने कहा—“ तुम क्या करते हो?” “ मैं? मैं इंडियन नेवी में हूँ. अभी कोलकाता में पोस्टेड हूँ.”—जवाब आया. “हम्म, नेवी में क्या करते हो?”. “ कहने को तो इंजिनियर हूँ, मगर करता मजदूरी हूँ. मैकेनिक का काम करता हूँ.”-- और वह हँस दिया. “ अच्छा! तुमने इंजीनियरिंग की है! कहाँ से?” “ मैंने बारहवीं के बाद ही नेवी ज्वाइन कर ली थी. नेवी में ही किसी तरह से डिग्री कर ली. अब तुम जैसे लोग थोड़े जो है. नाम के बस इंजिनियर है हम तो!.”—उसकी इस बात पर मुझे अजीब-सा लगा जो उस वक्त तो नहीं समझ पाई. “कोई नहीं, हर कोई यही कहता है. वैसे तुम्हारा काम क्या और कैसा होता है?”. अब वह मेरे सवालों को बड़े मन से जवाब देने लगा था – “ शिप में रहना होता है, मैं इंजिन सेक्शन में हूँ. इंजिन की देखभाल करना हमारी जिम्मेदारी है. क्यूंकि इसके बिना पूरी शिप बेकार है.” अब मैं हँस के बोली— “हम्म ये हुआ न काम!” फिर हमदोनो पहली बार एक साथ हँसे. फिर मेरे सैंकडों सवाल जैसे कि “ पढाई वगैरह कहाँ से की, शिप के साथ कहाँ–कहाँ गए, किस-किस जगह, देश घूम लिया अब तक तुमने, शिप में कैसे रहते हो, जरूरत पड़ने पर बन्दूक भी उठाना होता है क्या, शिप में कितने लोग होते है, कैसे घुसपैठियों से देश को बचाते हो, कोई अच्छा संस्मरण, कभी लड़ने की नौबत आई है क्या, नेवी की जिंदगी, शिप के अंदर और शिप के बाहर की भी, कैसी होती है, कैसा लगता है देश के लिए काम करना, शिप में क्या-क्या होते है, इंजिन कैसा होता है, राडार या उस तरह के चीजों से कैसे काम करते हो” वगैरह-वगैरह, इस तरह के छोटे-छोटे व बारीक सवालों से मैंने इंडियन नेवी को उसके नज़रिए से जाना जो कि मेरे पहले की सोच से कहीं अलग थी. इसी तरह से वह भी मुझसे मेरी पढाई व पढाई के दौरान विभिन्न जगहों के बारे में, वहाँ के लोगों के बारे में पूछने लगा और मैं भी बताने लगी. शायद अब हमदोनों एक दूसरे को सही तरीके से जानने लगे थे. अब वो उतना छिछोरा जैसा लग भी नहीं रहा था. थोड़ी सभ्यता आ गई थी उसमे भी, ठीक वैसे ही जैसे हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के अलग होते है. उसके बाद मैंने उसके बारे में जानना शुरू किया तो पता चला कि जनाब के शौक भी बड़े अच्छे है. उनमें से एक फोटोग्राफी भी थी, उसकी खींची हुई तस्वीरों को भी देखा जो कि वाकई में बहुत ही सुन्दर थी. ट्रेक्किंग, फोटोग्राफी, हर भाषा का ज्ञान, खेल में भी रूचि होना, मार्शल आर्ट में भी अव्वल रहना, ब्लैकबेल्ट-धारी व और भी कई चीजों में महारथी होना, इन सबके साथ उसकी एक अच्छी बात यह कि हर किसी को किसी-न-किसी प्रकार से अपनी ओर मोहित कर लेना और सबसे अच्छी बात उसका दिल जो कि एक मासूम नन्हे से बच्चे की तरह था, जिसे मैं इंडियन नेवी के ड्रेस में बिलकुल भी उतार नहीं पा रही थी. इस बीच हम तीनों ने खाना भी खा लिया. उसके बाद एक साथ बैठ कर हमने काफी गप्पे मारी.

अब मेरे जाने का वक्त हो गया था. मुझे ट्रेन पकड़ कर खडगपुर भी पहुँचना था, सो मैंने उनसे विदा लेने की सोची और अपनी जाने की तैयारी करने लगी. इतने देर में मुझे और उसे भी यह समझ में आ ही गया था कि हमदोनों एक दूसरे को जान कर काफी खुश थे, बस ज़ाहिर करने में एक-दूसरे से बच रहे थे. बस यही एक जगह थी जहाँ पर हम दोनों एक दूसरे को बनावटी लग रहे थे. लड़की होने का फायदा उठाते हुए मैं ‘कोई फर्क नहीं पड़ता’ वाला दुपट्टा ओढ़े घर से निकलने लगी. न उसने ही और न मैंने भी एक-दूसरे से इसी तरह परिचित बने रहने के लिए एक-दूसरे से पता, मोबाइल नंबर, ई-मेल वगैरह माँगने की जरूरत समझी. जूते पहनते वक्त मन में रह-रह के ख्याल आ रहे थे कि “इससे और भी बात करने को क्यूँ मन कर रहा है? नहीं रहने दो, इस तरह का सोचना ठीक नहीं है, कहीं मुझे गलत न समझ ले. कभी-कभी एक दिन की मुलाकात ऐसी ही होती है, और शायद यही काफी है मेरे लिए.” वह भी मेरी तरफ देख कर ऐसा ही कुछ सोच रहा था, मगर उसे भी समझ में नहीं आ रहा था कि सहेली की सहेली से, वो भी पहली मुलाकात में कितना और किस सभ्य-हद तक बात करना चाहिए. उसे इस बात से भी कोफ़्त हो रही थी कि “इस पर मेरा असर क्यूँ नहीं हो रहा है? ऐसे कैसे फिर कभी नहीं मिलने के लिए वापस चली जा रही है?” मगर दोनों ने जैसे फिर-से अनजान बनने के लिए समझौता कर लिया हो. हमने फिर-से अपना-अपना बनावटी मुखौटा लगा लिया.

मेरी सहेली तो मुझे दरवाजे से ही विदा कर देती अगर वह उसे नहीं कहता. उसके नीचे तक छोड़ आने की जिद सुनकर मेरे मन के शक को सच की मुहर मिल गई और मैं मन-ही-मन हँस दी. घर से नीचे मुख्य सड़क पर आते-आते वह मुझसे जल्दी-जल्दी बातें करने लगा और एक साँस में कई सवाल पूछते गया. बस सिर्फ एक ही चीज़ नहीं पूछ पाया जिसे पूछने के लिए उसने इतने सारे बिना काम के सवाल कर डाले. जैसे वह चाहता हो कि मैं ही उससे यह सवाल करूँ. मगर मैं कैसे करती, सहेली का भी ध्यान आ गया कि आई थी इससे मिलने, अब क्यूँ ऐसा लग रहा है कि किसी और से मिल के जा रही हूँ.

थोड़ी ही देर में मुझे एक ऑटो भी मिल गई जो मुझे स्टेशन तक ले जानेवाली थी. ऑटो के बायीं तरफ से मैं बैठ गई. मेरे दाई तरफ वो दोनों खड़े हाथ हिलाने लगे और साथ में हिदायतें भी कि ठीक से पहुँच जाना और पहुँच के फोन कर देना. उनकी सब बातों का जवाब हाँ में देकर मैं ऑटो में ठीक से बैठने की कोशिश करने लगी. यकायक कुछ ध्यान में आया और मैंने उस एक दिन के अनजाने साथी को आखिरी बार ठीक से देखने और अलविदा कहने की इच्छा से अपना सिर थोड़ा झुका कर उसे देख मुस्कुराना चाहा. मगर शायद ऑटो वाले भैया ने गाड़ी थोड़ी आगे बढ़ा दी थी, जिससे मैं उसे देख नहीं पायी. सिर्फ अपनी सहेली को ही हौले से फिर से आने का वादा कर आगे की ओर देखने लगी. मन में दुःख तो हुआ, पर अपनी किस्मत को इतना ही अच्छा और भाग्यशाली मान कर मैंने अपने आपको समझा लिया. ड्राईवर भैया ने ऑटो स्टार्ट भी कर दी थी, उसकी आवाज़ में मेरे मन की आवाज़ भी मुझे कम सुनाई देने लगी.

“तुम ऑरकुट में हो न?”—मैंने हडबड़ा कर अपनी बायीं तरफ देखा तो पता नहीं कब और कैसे वह घूम कर ऑटो के दूसरी तरफ आ गया था और मुझे देख मुस्कुरा रहा था. मैंने जल्दी में हामी भरने के लिए सिर हिलाया और ऑटो आगे बढ़ गई.

अब दोनों ही, मैं इस ऑटो में और वह उस सड़क पर, अकेले-अकेले बढ़ रहे थे, मगर इस बार उस नकली मुखौटे को चेहरे से हटा कर, एक-दूसरे से अंतत: अपना सच्चा परिचय करवा कर.